श्री हित हरिवंश महाप्रभु कृत यमुनाष्टक (Shree Yamuna Ashtakam): श्री यमुनाष्टक – श्री हित हरिवंश महाप्रभु की 9 छंदों वाली संस्कृत कविता है। काव्य में उनका सामूहिक कार्य षोडश ग्रंथ के नाम से जाना जाता है।
Shree Yamuna Ashtakam | श्री यमुनाष्टक – श्री हित हरिवंश महाप्रभु
बृजाधिराज-नन्दनाम्बुदाभ गात्र चन्दना-नुलेपगंधवाहिनीं भवाब्धिबीजदाहिनीम् ।
जगत् त्रये यशस्विनीं लसत्सुधापयस्विनीं-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [1]
ब्रजराजनंदन श्री कृष्ण के मेघश्याम अंग पर अनुलेपित चन्दन की सुगंध को लेकर बहने वाली, बार-बार जन्म की कारण अविद्या को जला देने वाली, तीनों लोकों में फैले हुए निर्मल यश वाली, अमृत जैसे जल वाली तथा अति कठिनाई से नष्ट होने वाले मोह का नाश करने वाली कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [1]
रसैकसीमराधिकापदाब्जभक्तिसाधिकांतदंगरागपिंजरप्रभातिपुंजमंजुलाम् ।
स्वरोचिषातिशोभितां कृतां जनाधिगंजनां-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [2]
जो श्रृंगार रस की पराकाष्ठा श्री राधा के चरण कमलों की भक्ति देने वाली हैं । जल – केलि से घुलकर बहे हुए श्री राधा के अंगराग की केसरिया सघन कान्ति से जो अति कमनीय हैं तथा अपनी श्यामल आभा से काजल की श्याम कान्ति को फीका करती हुई जो अत्यन्त सुशोभित हो रही है । अति कठिनाई से नष्ट होने वाले मोह का नाश करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [2]
बृजेन्द्रसूनुराधिकाहृदिप्रपूर्यमाणयोर्महारसाब्धिपूरयोरिवातितीव्रवेगतः ।
बहिः समुच्छलन्नवप्रवाहरूपिणीमहं-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [3]
नंदनंदन श्री कृष्ण और वृषभानुनंदिनी श्री राधा के हृदयों में निरंतर उमड़ रहे दो महासागरों के लबालब भर जाने के अति तीव्र वेग से बाहर उछ्ल रहा नवीन प्रवाह ही श्री यमुना जी का निज रूप है । अति कठिनाई से नष्ट होने वाले मोह का नाश करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [3]
विचित्ररत्नबद्धसत्तटद्वयश्रियोज्ज्वलां-विचित्रहंससारसाद्यनन्तपक्षिसंकुलाम् ।
विचित्रमीनमेखलां कृतातिदीनपालितां-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [4]
जो चित्र वचित्र रत्नों से जटित अति सुन्दर दोनों तटों (किनारों) की शोभा से उजली तथा श्रंगारमई, रंगबिरंगी सुशोभित हो रही हैं तथा रंग-बिरंगे विविध हंस सारस आदि पक्षीगण जिनके तट पर क्रीड़ा कर रहे हैं और अनेक रंगों वाली मीनों (मछलीओं) की करधनी वाली तथा अनाथ अत्यंत दीन जनों का भी पालन करनेवाली, कठिनाई से छुटने वाले मोह को नष्ट करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [4]
वहंतिकां श्रियांहरेर्मुदा कृपास्वरुपिणीं-विशुद्धभक्तिमुज्ज्वलां परेरसात्मिकां विदुः ।
सुधाश्रुतित्वलौकिकीं परेशवर्णरुपिणीं-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [5]
श्री हरि (श्यामसुन्दर) कि अङ्ग-कान्ति को जो आनन्द पुर्वक् धारण करने वाली हैं, साक्षात् कृपा ही जिनका स्वरुप् है, कई लोग जिनको रस-मयी विशुद्ध (निर्मल), रस भक्ति के रूप से जानते हैं और जो दिव्य अमृत की ही स्त्रोत हैं । श्याम सुन्दर के समान वर्ण वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ जो कठिनाई से छुटने वाले मोह को नष्ट कर देती हैं । [5]
सुरेन्द्रवृन्दवन्दितां रसादधिष्ठितेवने-सदोपलब्धमाधवाद्भुतैकसदृशोन्मदाम् ।
अतीव विह्वलामिवच्चलत्तरंगदोर्लतां-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [6]
श्री यमुना जी ब्रह्मा आदि देवगणों द्वारा वन्दित हैं तथा श्यामाश्याम के प्रेमरस के वशीभूत होकर श्री वृन्दावन मैं ठहर गई हैं । वहां सदा ही प्राप्त माधव के अद्भुत और अद्वितीय मधुर रस से वे उन्मत्त हैं । तथापि अत्यंत व्याकुल (रस की तृष्णा मैं) होने के कारण उछलती हुई तरंग रुपी भुज लताओं वाली हैं, कठिनाई से छुटने वाले मोह को नष्ट करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [6]
प्रफुल्लपंकजाननां लसन्नवोत्पलेक्षणां रथांगनामयुग्मकस्तनीमुदारहंसिकाम् ।
नितंबचारुरोधसां हरेः प्रियां रसोज्ज्वलां-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [7]
श्री यमुना जी में खिला हुआ कमल ही उनका मुखार्विन्द् है, शोभायमान नीलकमल ही नेत्र हैं, चकवा-चकवी (पक्षी) ही स्तन युगल हैं, सुन्दर हंसों की श्रेणी हि ग्रेवेय् नामक ग्रीवाभरन (हन्सुली) की शोभा दे रही है । श्री हरिप्रिया श्री राधा के उज्वल रस स्वरुप सदैव देदीप्यमान उनके दो तट ही उनके नितंब हैं । कठिनाई से छुटने वाले मोह को नष्ट करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [7]
समस्तवेदमस्तकैरगम्य वैभवां सदा-महामुनीन्द्रनारदादिभिः सदैव भाविताम् ।
अतुल्यपामरैरपिश्रितां पुमर्थशारदां-भजे कलिन्दनन्दिनीं दुरंतमोहभंजनीम् ॥ [8]
संपूर्ण वेदों के शिरोभाग (उपनिषद आदि) के लिए जिनका रस-वैभव अज्ञेय है, नारदादि मनन परायण महानुभाव सदैव जिनकी ध्यान-धारणा करते रहते हैं, शरण में आये हुए जन्म और कर्म से अति नीच पुरुषों को भी जो धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों का सार रस-भक्ति प्रदान करती हैं, कठिनाई से छुटने वाले मोह को नष्ट करने वाली उन कलिंदनंदिनी श्री यमुना जी का मैं भजन करता हूँ । [8]
य एतदष्टकं बुधस्त्रिकालमादृतः पठेत्-कलिन्दनन्दिनीं हृदा विचिंत्य विश्ववंदिताम् ।
इहैव राधिकापतेः पदाब्जभक्तिमुत्तमा-मवाप्य स ध्रुवं भवेत्परत्र तत्प्रियानुगः ॥ [9]
जो विवेकी पुरुष समस्त विश्व के द्वारा वन्दनीय श्री यमुना जी का हृदय से ध्यान करता हुआ; इस यमुनाष्टक का भाव पूर्वक प्रातः,मध्यान,साँय तीनो काल पाठ करेगा, वह इस जन्म में श्री कृष्ण के चरण- कमलों की उत्तम रस-भक्ति प्राप्त कर लेगा और देह त्याग के बाद उनकी प्राण-प्रिया श्री राधा की सहचरी का पद निश्चय ही प्राप्त करेगा । [9]