Ashtadash Siddhant Ke Pad Sampurn Arth Sahit 1 To18 अष्टादश सिद्धांत के पद सम्पूर्ण अर्थ सहित 1 से 18 (स्वामी हरिदास)

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अष्टादश सिद्धांत के पद(Ashtadash Siddhant Ke Pad) (स्वामी हरिदास) ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज द्वारा लिखित अठारह सिद्धांत दोहे जिन्हे अष्टादश सिद्धांत के पदों से जाना जाता है।

Ashtadash Siddhant Ke Pad 01 | अष्टादश पद (01)

Ashtadash Siddhant Ke Pad Sampurn Arth Sahit 1 To18

(राग विभास)

ज्यौंही-ज्यौंही तुम राखत हौ, त्यौंही-त्यौंही रहियत हौं, हो हरि। [1]

और तौ अचरचे पाँय धरौं सो तौ कहौ, कौन के पैंड़ भरि? [2]

जद्यपि कियौ चाहौ, अपनौ मनभायौ, सो तौ क्यों करि सकौं, जो तुम राखौ पकरि। [3]

कहिं श्रीहरिदास पिंजरा के जानवर ज्यौं, तरफ़राय रह्यौ उड़िबे कौं कितौऊ करि॥ [4]

-ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (01)

हे हरि ! आप जैसे जैसे रखते हो वैसे वैसे ही मैं रहता हूं क्योंकि मेरे स्वरूप की स्थिति और प्रवृत्ति आपके ही अधीन है। [1]

आपके विचार अर्थात् आपकी इच्छा के बिना यदि मैं अपना पाँव भी धारण अर्थात् आपकी इच्छा के बिना एक पाँव एक डग भी नहीं धर सकता हूँ, फिर विशेष कर्तव्य की तो बात ही कहां है।  [2]

यद्यपि आपकी रुचि के बिना कुछ भी संभव नहीं है, फिर भी मन का वास्तविक स्वरुप है इधर उधर जाना। सार बात यह है आपकी कृपा के बल ने पकड़ रखा है, तो इधर उधर कैसे भटक सकता हूँ? [3]

जैसे पिंजरे में बंद पक्षी पंख फड़ फड़ा कर रह जाता है, उड़ नहीं सकता ऐसे ही यह जीव की दशा है (काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या इसे घेरे रहते हैं) , श्री हरि की कृपा के बिना वो स्वतंत्र नहीं हो सकता। [4]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 02 | अष्टादश पद (02)

(राग विभास)
काहू कौ बस नाहिं, तुम्हारी कृपा तें सब होय बिहारी-बिहारिनि।
और मिथ्या प्रपंच, काहे कौं भाषियै, सु तौ है हारिनि॥
जाहि तुमसौं हित, तासौं तुम हित करौ, सब सुख कारनि।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी, प्रानन के आधारनि ॥2॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (02)



हे बिहारी बिहारिणी! सुर-मुनि मोहनी आपकी दुर्जय माया की प्रबलता के अधीन होने से किसी का बल नहीं है जो साधन प्रयत्न करके आपकी माया से पार हो जाए। जो कुछ भी होता है आपकी कृपा से ही होता है जीव को आत्म स्वरूप का ज्ञान और भक्ति के अंग साधन सबका कारण आपकी कृपा ही है। (1)
संसारी प्रपंच और निंदा, इनको कहना, इनका वर्णन करना, यह महान अज्ञान है। इनको नहीं करना चाहिए। यह भक्ति को छीनने वाला है अर्थात भक्ति स्वरूप को गिराने वाला है (हरण करने वाला है)। (2)
जो जीव जिस भाव से आप से प्रीति करता है, आप भी उसी भाव से प्रेम करते हो क्योंकि आप सब सुखों के कारण स्वरूप हैं, सर्व सुखों के दाता हैं। (3)
रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास जी महाराज कहते हैं कि हमारे प्राणों के आधार सर्वस्व महामधुर नित्य निकुंज रसविलासी श्री श्यामा श्याम कुंजविहारिणी-कुंजविहारी हैं। (4)


Ashtadash Siddhant Ke Pad 03 | अष्टादश पद (03)

(राग विभास)
कबहूँ-कबहूँ मन इत-उत जात, यातैंब कौन अधिक सुख।
बहुत भाँतिन घत आनि राख्यौ, नाहिं तौ पावतौ दुख॥
कोटि काम लावन्य बिहारी, ताके मुहांचुहीं सब सुख लियैं रहत रुख।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी कौ दिन देखत रहौं विचित्र मुख॥

-ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (03)



भावार्थ –
हमारा मन इधर उधर बहुत जाता है।कभी यह देवता ,कभी वह देवी की मन्नते मांगते रहता है, जबकि यह सभी देवी देवता बिहारी जी के ही अधीन हैं। भगवत गीता में स्पष्ट है की जो देवी देवताओं को पूजता है वह उन के लोक में जाता है परन्तु जो मुझे सीधा भजता है वह जीव मुझ को ही प्राप्त होता है।भला बिहारी जी से भी अधिक कोई सुन्दर है? हम कोटि काम लावण्य बिहारीजी को छोड़ कर अन्य देवताओं के पीछे क्यूँ भागते हैं ? क्या इनके सुन्दर मुख दर्शन से भी अधिक सुन्दर कोई और हो सकता है? ललिता अवतार श्री हरिदास जी कहते हैं, “हे बिहारी जी ! मेरी तो यह ही कामना है कि मैं आपके इस विचित्र मुख कमल के दर्शन सदा करता रहूँ।”


Ashtadash Siddhant Ke Pad 04 | अष्टादश पद (04)

(राग विभास)
हरि भज हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ।
मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ ॥ [1]
अनमाँग्यौं आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं।
कहिं श्रीहरिदास मीचु ज्यौं आवैं, त्यौं धन है आपुन कौं ॥ [2]

-ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (04)



श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि, हे मनुष्य देह के अभिमान की आसक्ति को छोड़कर, श्री युगल किशोर प्रिया लाल का भजन कर, भजन कर। भजन को मत छोड़।  अरे साधक, तिल तिल (अत्यंत) धन की इच्छा मत कर, मत कर । [1]

यदि भगवत्प्राप्ति ही अपना लक्ष्य बना लिया है, तो रुक मत, सब वस्तु बिना मांगे तथा बिना प्रयास के ही प्राप्त होती हैं। जैसे अपने स्वभाव से ही एक पलक दूसरे पलक से लग जाती है किंतु ना लगने का प्रयास करें तब भी वह नहीं रुकती, ऐसे ही अनिच्छा करने पर भी कृपा से सब वस्तु प्राप्त हो जाती हैं। श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि मीच माने मृत्यु के पश्चात जो धन प्राप्त होता है अर्थात (मृत्यु भी जिस धन को छीन नहीं सकती) वह प्रिया प्रियतम का प्रेम धन है, वही असली हमारा धन है। संसार का धन तो सब क्षणिक माया स्वरुप है, जो एक क्षण में ख़तम हो जाएगा । [2]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 05 | अष्टादश पद (05)

(राग बिलावल)
ऐ हरी मो सौ न बिगारन कौ, तो सौ न सँवारन कौ, मोहिं तोहिं परी होड़ ।
कौन धौं जीतै, कौन धौं हारै, पर बदी न छोड़ ॥
तुम्हारी माया बाजी विचित्र पसारी, मोहे सुर मुनि, का के भूले कोड़ ।
कहिं श्रीहरिदास हम जीते, हारे तुम, तऊ न तोड़ ॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (05)



श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं, कि एक हम जीव हैं जिन को हमेशा अपनी बिगड़ने की आदत पड़ी हुई है और दूसरी तरफ अति अकारण करुणा वरुणालय करुणामय बिहारी जी जो हमारा काम बनाने में ही लगे रहते हैं।हमारा हित करने वाले बिहारी जी से बढ़ कर कोई नही है। हम बिगड़ने वाले हैं और बिगाडने वाले हैं ,जीव और बिहारी जी में इस की होड़ लगी हुई है।

यह प्रतियोगिता में किस की हार और किस की जीत है यह तो कहना असम्भव है। जीव भी काम बिगाड़ने में हठ नही छोड़ेगा और न ही बिहारी जी अपनी हठ छोड़ेगें।इसलिए इस प्रतियोगिता में हार जीत का प्रश्न ही नही क्यूंकि दोनों में से पीछे हटने वाला कोइ नही। 

जीव कहता है, हे हरि! आप की माया इतनी विचित्र है की बड़े-बड़े ऋषि -मुनि भी इस के छलावे में मोहित हो गए हैं। मैं तो अधमों से भी अधम हूँ। तुम्हारी माया से कैसे बच सकता हूँ ? 

श्री हरिदास जी कहते हैं की इस प्रतियोगिता में इस बात का कोई तोड़ नही कि जीव बिगाड़ता है और बिहारी जी सुधारते रहते हैं। आप बार बार सुधारना चाहते हैं लेकिन हम सुधरना नहीं चाहते, हमारी इच्छा ही नहीं सुधरने वाली, इसलिए हम जीते और आप हारे। 


Ashtadash Siddhant Ke Pad 06 | अष्टादश पद (06)

[राग आसावरी]
बंदे, अखत्यार भला।
चित न डुलाव, आव समाधि-भीतर, न होहु अगला॥
न फ़िर दर-दर पिदर-दर, न होहु अँधला।
कहिं श्रीहरिदास करता किया सो हुआ, सुमेर अचल चला॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (6)



इस पद में स्वामी श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि अरे जीव, तुझे मानव देह जैसा अत्यंत दुर्लभ अधिकार एवं अवसर मिला है, अपने चित्त को इधर उधर तनिक भी ना डुला, इसे नित्य श्री श्यामा कुंजबिहारी में लगा। अपनी हृदय समाधि में श्री श्यामा कुंज बिहारी को देख, पता नहीं तुझे अगला क्षण मिले या नहीं । मूर्ख मत बन, जब तूने श्यामा कुंजबिहारी की शरण ग्रहण करने का फैसला कर लिया है, अब क्यूं दर दर भटक रहा है, क्यूं अपने पूर्वजों की सम्पत्ति से अंधा हुआ जा रहा है? श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि सारे संसार का पालन पोषण बिहारी जी करते हैं, अगर वह चाहें तौ सुमेरु भी चलायमान हो जाय भावार्थ यह है कि यह जगत ईश्वर के अधीन है।


Ashtadash Siddhant Ke Pad 07 | अष्टादश पद (07)

 (राग आसावरी)
हित तौ कीजै कमलनैन सौं, जा हित के आगैं और हित लागै फ़ीकौ।

कै हित कीजै साधु-संगति सौं, ज्यौं कलमष जाय सब जी कौ॥  
हरि कौ हित ऐसौ, जैसौ रंग मजीठ, संसार हित रंग कसूँभ दिन दुती कौ।
कहिं श्रीहरिदास हित कीजै श्रीबिहारीजू सौं, और निबाहु जानि जी कौ॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (07)

कमल के समान नेत्र हैं जिनके, ऐसे कमल नयन श्री बिहारीजी से ही हित-प्रेम करना चाहिए क्यूंकि उसके आगे सांसारिक एवं मोक्ष तक की कामना तुच्छ लगती है या साधु संतों की संगती से प्रेम करना चाहिए जिससे हृदय के समस्त कल्मष (अशुभ वासनाएं) सब प्रकार से नष्ट होती हैं।

श्री बिहारी जी अकारण करुणा वरुणालय हैं, इनके हित आगे सब हित बेकार हैं। इन का हित (प्रेम) मजीठ (एक प्रकार की लता जिसके फलों से लाल रंग बनाया जाता है) रंग की तरह पक्का है और संसार का प्रेम ऐसा है जैसे कुसुम रंग (पौधे या फूल के रंग का), जो आज चढ़ेगा और कल उतर जाएगा, जो क्षणिक है। स्वामी श्री हरिदास जी कहते हैं यदि प्रेम करना है तो बिहारीजी से ही करो, क्यूंकि केवल वह ही हैं जो प्रेम निभाना जानते हैं।


Ashtadash Siddhant Ke Pad 08 | अष्टादश पद (08)

(राग आसावरी)
तिनका ज्यों बयार के बस ।
ज्यौं भावै त्यौं उड़ाय ले जाय आपने रस ॥
ब्रह्म लोक सिवलोक और लोक अस ।
कहि श्री हरिदास विचार देखौ विना बिहारी नाहिं जस ॥

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, अष्टादश पद (8)



एक तिनका भी पृथ्वी पर गिरा हुआ पवन के आधीन है। जहाँ वायु उसे उड़ा कर ले जायेगी उसे वहीं जाना ।इस प्रकार ब्रह्म लोक, शिवलोक एवं अन्य लोक सब श्री बिहारी जी के अधीन ही हैं । यह जीव भी बिहारी जी की माया शक्ति के अधीन है।स्वामी श्रीहरि दास कहते हैं कि तुम समस्त प्रकार से विचार करके देख लो श्री बिहरीजी की कृपा के बिना वह सर्वोपरि नित्य यश प्राप्त करना असम्भव है।


Ashtadash Siddhant Ke Pad 09 | अष्टादश पद (09)

(राग आसावरी)
संसार समुद्र मनुष्य मीन नक्र मगर और जीब बहु बंदसि ॥
मन बयार प्रेरे स्नेह फंद फंदसि ॥
लोभ पिंजरा लोभी मरजिया पदारथ चारि खंद खंदसि॥
कहि श्री हरिदास तेई जीव पराभये जे गहि रहे चरन आनन्द नन्दसि ॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (9)



संसार एक सागर है।मनुष्य इस संसार सागर की मछली है जो स्वभाव से चंचल होती है यही स्वभाव मनुष्य का भी है।इस सागर में मनुष्य -मीन, नक्र मगर रूप में हैं सबल निर्बल को निगल जाने में लगे हुए हैं।यही क्रम चलता आ रहा है।वैसे यह दुनिया एक शैतान की दुकान है। वे शैतान ,वस्तु के बदले धर्म रूपी धन छीन लेते हैं। लेकिन जो ज्ञानीजन हैं वह संसार से दूर भाग जाते हैं जो फंदे में फंस गया उस का फिर निकलना मुश्किल है।


मनुष्यों की कई कोटियाँ हैं जैसे अच्छे – बुरे, लोभी- संतुष्ट, सज्जन -शैतान, मानव-पशु आदि। संसारी जीव मन रुपी वायु से प्रेरित हो कर मोह रुपी फंदे में फंसे हुए है।लोभी मनुष्य मरजिया(समुद्री गोताखोर) की भांति संसार सागर से चार पदार्थ निकलने में लगे हुए हैं। स्थिर  बुद्धि न होने के कारण धर्म,अर्थ,काम मोक्ष के स्थान उन्हे शंख सीपी, कोड़ी ही हाथ लगती है। सार वस्तु चार पदार्थों में से यदि किसी एक खंड का भी खंड यानि की अंशांश से यदि हट आ जाए तो जीवन का कल्याण हो सकता है क्योंकि रत्न रुपी पदार्थ ही मूल्यवान होते हैं। स्वामी श्री हरिदास जी कहते हैं की जो बिहारी जी की शरण ग्रहण करता है वही इस संसार को पार कर सकता है।


Ashtadash Siddhant Ke Pad 10 | अष्टादश पद (10)

(राग आसावरी)
हरि के नाम कों आलस कत करत है रे काल फिरत सर सांधे।
बेर कुबेर कछू नहिं जानत चढ्यौ फिरत है कांधे॥
हीरा बहुत जवाहर संचे कहा भयौ हस्ती दर बाँधे।
कहें श्री हरिदास महल में बनिता बनठाढ़ी भई॥
एकौ न चलत जब आवत अन्त की आँधें॥

– श्री स्वामी हरिदास, अष्टादश पद (10)



भावार्थ – स्वामी श्री हरिदास जीव से कहते हैं -रे जीव ! तू हरि का नाम लेने में आलस नही कर क्युकिं काल समय-असमय को विचार न करते हुए, हमेशा तेरे पीछे धनुष पर बाण चढ़ाये तत्पर खड़ा है । उस मृत्यु रुपी काल के आगे न तो तेरे विशाल धन की, न महल में विराजमान रूप यौवनभरी वनिता (स्त्री) आदि की कुछ चलेगी। इसलिए नाम रुपी महाधन को कभी मत भूल। ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज स्पष्ट रूप से कहते हैं यदि तुम हरि का नाम लेते रहोगे तो काल तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता और साक्षात श्री बिहारीजी महाराज को तुम सहज ही प्राप्त कर लोगे।


Ashtadash Siddhant Ke Pad 11 | अष्टादश पद (11)

(राग आसावरी)
देखौ इनि लोगन की लावनि ।
बूझत नाँहिं हरि चरनकमल कौं मिथ्या जन्म गँवावनि ॥ [1]
जब जमदूत आइ घेरत, तब करत आप मन-भावनि ।
कहिं श्रीहरिदास तबहिं चिरजीवौ, जब कुंजबिहारी चितावनि ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (11)

इस पद में श्री हरिदास जी जीव की संसार से आसक्ति व बिहारी जी से उदासीनता के बारे में वर्णन करते हैं। उन का कहना है की देखो इन लोगों की लावनि (प्रीति) । बिहारी जी कि भक्ति (मन को लगाने योग्य) को छोड़ कर झूठे संसार के प्रपंच में फंसे हुए हैं। इतनी दुर्लभ मनुष्य योनि को कौड़ी के बदले में लुटा रहें हैं। [1]

इन्हें यह खबर नही की जब यम दूत इन को लेने आयेगा तो यह कुछ नही कर सकेंगें।यमदूत अपनी मन मानी करेंगे और इस के न चाहते भी इस की आत्मा को घसीटते हुए ले जाएँगें। 
स्वामी श्री हरिदास जी जीव को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे जीव ! तू बिहारी जी का ही चिंतन केवल कर तभी तू नित्य जीवन, नित्य रस पान कर सकता है। [2]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 12 | अष्टादश पद (12)

(राग आसावरी)
मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी । [1]

वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी ॥ [2]
गो गो-सुतनि सौं, मृगी मृग-सुतनि सौं, और तन नैंकु न जोहनी । [3] 
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (12)


मन लगाकर मन को स्थिर कर एकाग्र करके प्रिया प्रियतम में प्रीति करें और सब का परित्याग करके हाथ में केवल मृतिका (मिट्टी का पात्र) करुवा धारण करें और ब्रज की सुंदर गलियों में सोहनी बुहारी देते रहें । [1]

श्री वृंदावन तथा अन्य बारह वन और बारह उपवन हैं, इनके अतिरिक्त जो भूमंडल-ब्रजभूमि-श्री-कृष्ण-विहार-स्थल है, उसका सेवन करना और उन वनों से वन्य पुष्प और गुञ्जादि को तोड़ कर, उसकी माला गूंथकर श्री बिहारी जी को प्रिया लाल को धारण करना चाहिए। [2]

जैसे अनेक गौ हैं मृगी अनेक हैं तथा उनके बच्चे भी बहुत हैं और एक ठिकाने ही रहते हैं, परंतु गायों की और मृगियों की स्नेह भरी दृष्टि अपने अपने बच्चों पर ही रहती है, दूसरों के बच्चों की ओर तनिक भी नहीं जाती, ऐसे ही साधक को श्री बिहारी जी के सिवा अन्यत्र मन को नहीं लगाना चाहिए। [3]

रसिक शिरोमणि स्वामी श्री हरिदास जी महाराज आगे कहते हैं कि ऐसे सेवा कार्य करते हुए, इंद्रियों से सेवा के निमित्त कार्य करते हुए भी, उस समय मन को श्रीप्रिया लाल में ही लगाए रखें, जैसे गूजरी दूध की भरी हुई दोहनी मटकी को माथे पर धरकर चलती हुई,  सखियों से बातें करती हुई भी अपने चित्त को दोहनी में ही लगा कर रखती है । [4] 


Ashtadash Siddhant Ke Pad 13 | अष्टादश पद (13)

(राग कल्याण)
हरि कौ ऐसोई सब खेल ।
मृग तृष्णा जग ब्यापि रह्यों है कहूँ बिजौरौ न बेल ॥ [1]
धन-मद जोवन-मद राज-मद ज्यौं पंछिन में डेल।
 कहें श्री हरिदास यहै जिय जानौ तीरथ कैसौ मेल॥ [2]
– श्री स्वामी हरिदास, अष्टादश पद (13)



मायिक जगत में श्री हरि का ऐसा ही विचित्र खेल है, जिसमें सुख का न कोई बीज है और न ही बेल।
इसी वजह से समस्त व्यक्ति संसारी पदार्थों की आशाओं से सुखी होने के लिए ऐसे लालायित हैं जैसे कोई मृग सूर्य की किरणों को जल समझ कर भागता ही जा रहा है परन्तु वहां एक भी बूँद जल नहीं है। [1]

यह संसार का मेल क्षणिक है, फिर भी जीव अभिमान युक्त होकर इस क्षणिक धन मद, यौवन मद और राज मद में फंसा हुआ रहता है परन्तु यह सब मद व्यर्थ हैं । यह सब ऐसे उड़ जायेगा जैसे एक डाल पर बैठे हुए पंछी उड़ जाते हैं।
स्वामी श्री हरिदास जी महराज कहते हैं कि यह मायिक सुख सम्बन्धियों को ऐसे जानो जैसे तीर्थ पर अनेक तरह के यात्री एकत्रित हो गए हैं, परन्तु दो चार दिनों में ही सब अपने अपने घर चले जाएंगे। इसलिए श्री हरि को छोड़कर कोई भी तुम्हारा अपना नहीं है। [2]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 14 | अष्टादश पद (14)

(राग कल्याण एवं कानहरौ)
झूठी बात सांची करि दिखावत हौ हरि नागर॥ [1]
निसि दिन बुनत उधेरत जात प्रपंच कौ सागर॥ [2]
ठाट बनाय धरयौ मिहरी कौ है पुरुषतें आगर॥ [3]
सुनि हरिदास यहैं जिय जानों सपनें कौ सौ जागर॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास, अष्टादश पद (14)



प्रस्तुत पद में श्री हरिदास जी ने जीव की अति प्रबल संसार आसक्ति को देखकर श्री बिहारी जी से ही कहते हैं कि आप ऐसे नागर नटवर शिरोमणि हो जो कि अति झूठे मायिक जगत को ही सच्चा कर दिखा रहे हो। [1]
दिन रात इस माया रूपी प्रपंच के बुन को उधेर रहे हो (बुन बना रहे हो), और आपकी माया इतनी बलवान है कि जीव आपसे ही अधिक प्रभावशाली इस माया को मान रहे हैं । [2]
यह माया में ऐसे लिप्त हैं कि आपको चाहते ही नहीं हैं। [3]
अंत में श्री हरिदास जी महाराज जीवों से कहते हैं कि अरे भाई, जैसे सपने से जागृत अवस्था में आते ही सपने का कोई मोल नहीं होता, वह मिथ्या ही होता है, ऐसे ही यह संसारी जगत जिसको तुम सत्य मान रहे हो यह सपने के समान मिथ्या ही है। सत्य तो केवल हरि भजन है। [4]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 15 | अष्टादश पद (15)

(राग कल्याण)
जगत प्रीति करि देखी नाहिनें गटी कौ कोऊ। [1]
छत्रपति रंक लौं देखे प्रकृति बिरोध बन्यों नहिं कोऊ॥ [2]
दिन जो गये बहुत जनमनि के ऐसें जाउ जिनि कोऊ। [3]
कहें श्रीहरिदास मीत भले पाये बिहारी ऐसौ पावौ सब कोऊ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, अष्टादश पद (15)



इस पद में स्वामी श्री हरिदास जी संसार के स्वरूप एवं प्रीति का बहुत सुंदर वर्णन करते हैं। वह कहते हैं कि संसार में हमने सबसे (अपने परिवार वाले, मित्र, परिजन इत्यादि) प्रीति कर के देख ली, कोई अपना नही नज़र आया। छोटी सी भूल हुई और नाता टूटा। कोई निस्वार्थ प्रेम करने वाला नही मिला। [1]
गरीब से गरीब एवं अमीर से अमीर जैसे छत्रपति इत्यादि तक से प्रीति करके देख ली, सभी अपने ही स्वभाव के दास मिले जो की प्रकृति विरोध (शुद्ध प्रेम से परे) है। संसारी व्यक्ति तो केवल स्वसुख वासना से ही ग्रसित हैं, एवं स्वसुखता में प्रेम का प्रवेश ही नहीं है। [2]
अतः वह अब हरि से प्राथना करके कहने लगे कि अनंत जन्म हमने जगत में प्रीति कर ऐसे ही व्यर्थ में गवां दिए क्योंकि अब सर्वोच्च प्रेम के चूड़ामणि, निरंतर प्रेम विहार में ही निमग्न श्री बिहारी जी महाराज ऐसी अद्भुत प्रीति करने वाले हमको मिले हैं, जिसे पाकर जीव कृत कृत हो जाता है, ऐसे ही अन्य जीवों को भी वो प्रेम सिंधु हरि मिलें (ऐसी हरिदास जी कामना कर रहे हैं)। [3 & 4]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 16 | अष्टादश पद (16)

(राग कल्याण)
लोग तो भूलें भले भूलें तुम जिनी भूलो मालाधारी। [1]
अपनौं पति छांडि ओरनिं सौं पति ज्यों दारीं में दारी॥ [2]
स्याम कहत ते जीव मोते विमुख भए जिन दूसरि करि डारी। [3]
कहि श्री हरीदास जग्य देवता ,पितरनि कौं श्रद्धा भारी॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास, अष्टादश पद (16)



इस पद में स्वामी श्री हरिदास अपने आश्रित जनों प्रति ममता विवश कहते हैं कि हे भाई श्री बिहारीजी की अनन्य आश्रय को सामान्य लोग तो भूले ही हुए हैं, उनकी वो जाने, परंतु तुम तो हमारे हो चुके हो। अत: तुम क्यूँ भूल रहे हो? [1]


किसी भी कारण से तुम्हें बिहारीजी को नहीं भूलना चाहिए क्यूँकि जो स्त्री अपने पति को छोड़कर अन्य पुरुषों से प्रेम करती है वह व्यभिचारिनी कहलाती है। उसकी ऐसी दुर्दशा होती है जैसे अनेक भड़वान में एक व्यभिचारिनी की होती है। [2]


स्वयं श्री कृष्ण ही इस बात को कह रहे हैं कि वो जन मुझसे विमुख हो गए जो हमारी शरण में आकर अन्य के पास एवं अन्य जगह जाते हैं । जब जीव ने अपने गुरु द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलने का निर्णय कर लिया है अब उसे कोई और धर्म पालन करने की आवश्यकता नहीं है। [3]


श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि जब जीव समर्पण कर श्री गुरु के शरणागत हो, करुणा सिंधु श्री बिहारीजी महाराज की शरण चला जाता है तब उसे कोई यज्ञ, देवताओं की भक्ति करना, पितरों का ऋण (या किसी भी व्यक्ति का ऋण) चुकाना, एवं किसी अन्य में श्रद्धा रखने आदि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। [4]


Ashtadash Siddhant Ke Pad 17 | अष्टादश पद (17)

(राग कल्यान)
जौलौं जीवै तौलौं हरि भज रे मन और बात सब बादि। [1]
द्यौस चार के हला-भला में कहा लेइगौ लादि? [2]
माया-मद, गुन-मद, जोवन-मद भूल्यौ नगर विवादि। [3]
कहिं श्रीहरिदास लोभ चरपट भयौ, काहे की लगै फ़िरादि॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, अष्टादश पद (17)



इस पद में स्वामी हरिदासजी महाराज समस्त जीवों से कहते हैं कि हे भाई सब बातों को भली भाँती त्याग कर एक मात्र श्री हरि का ही भजन कर। (1)
क्यूंकि तू जगत की थोड़े दिन की भलाई बुराई और वाह वाही से परलोक में क्या ले जा सकता है? (2)
नगर विवाद एवं नश्वर मायिक धन, गुन और यौवन आदि के मद में तू साक्षात करुणा एवं दया के समुद्र, अद्भुत सुख स्वरुप श्रीहरि के नाम को ही भूल गया है । (3)
ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि जीवों के मन बुद्धि में लोभ इस तरह हावी हो चुका है कि किसी भी संत एवं महात्मा एवं भगवान का उपदेश उनको ह्रदय में नहीं लगता। (4)


Ashtadash Siddhant Ke Pad 18 | अष्टादश पद (18)

(राग कल्यान)
प्रेम-समुद्र रूप-रस गहरे, कैसैं लागैं घाट। [1]
बेकारयौं दै जान कहावत, जानिपन्यौं की कहा परी बाट? [2]
काहू कौ सर सूधौ न परै, मारत गाल गली-गली हाट। [3]
कहिं श्रीहरिदास जानि ठाकुर-बिहारी तकत ओट पाट॥ [4]

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, अष्टादश पद (18)

श्री स्वामी हरिदास जी महाराज कहते है कि जिस प्रकार समुद्र की अगाधता का कोई ओर-छोर नही है उसी प्रकार प्रेम समुद्र जिसमें एक मात्र रूप, रस की गहराई है, उसका ओर-छोर कोई कैसे पा सकता है ? कोई भी इसके घाट तक नहीं पहुँच सकता। [1]

विधि, ज्ञान, ईश्वरतामय तत्व सिद्धान्त आदि जो प्रेम रस प्राप्ति के साधन वर्णन किए गए है वे सब व्यर्थ है । प्रेम रस का स्वाद केवल ओर केवल प्रिया-प्रियतम की कृपा से ही चखा जा सकता है। [2]

आज तक जिन्होने भी प्रेम रस स्वरूप का वर्णन किया है वास्तव में वह “विशुद्ध पूर्णतम प्रेम रस” स्वरुप से बहुत दूर है । महामधुर प्रेम रस का जो सार रस है कि ‘एक प्राण दो देह ‘ स्वरूप श्री युगल (प्रिया – प्रियतम ) के प्रेम रस तक पहुँचना बहुत दुर्लभ है। [3]

श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं, “हे भाई ! व्यर्थ की बातों में (विधि ,ज्ञान आदि ) समय व्यतीत मत कर । ठाकुर श्री बांके बिहारीजी में अपना मन लगा और श्री हरिदास दुलारी सर्वोपरि नित्यविहारिणी जु अनन्य रसिकों की स्वामिनी श्री राधा के दृढ़ता पूर्वक अनन्य हो जा”। [4]

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