केलिमाल | Kelimal Ji Ke Pad Sampurn | Kelimal Pdf In Hindi Arth Sahit | श्री हरिदास विरचित, केलिमाल 

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केलिमाल(Kelimal Ji Ke Pad) स्वामी श्री हरिदास जी महाराज जिन्हें ललिता सखी का अवतार वृंदावन धाम में माना जाता है, ने प्रमुख रूप से अंतरंग केली लीलाओं का वर्णन मुख्य इस ग्रंथ में किया है ।

Kelimal Ji Ke Pad Sampurn In Hindi Arth Sahit

Kelimal Ji Ke Pad Sampurn In Hindi Arth Sahit

Kelimal Ji Ke Pad (1)

(राग कान्हरौ)
माई री सहज जोरी प्रगट भई
जु रंग की गौर स्याम घन दामिनि जैसैं। [1]
प्रथमहूँ हुती अबहूँ आगें हूँ रहिहै न टरिहै तै सैं॥ [2]
अंग अंग की उजराई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसैं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सम बैसे॥ [3]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (1)



बाँके बिहारी लाल के प्राकट्य के समय हरिदास जी कहते हैं- हे सखी सहज जोड़ी नित्य श्याम-श्यामा की प्रकट हुई है। गौर श्याम वर्ण की यह जोरी घन दामिनी के समान है। [1]
यह जोड़ी पहले भी थी, अब भी है और आगे भी रहेगी। [2]
इनके अंगों की अनिर्वचनीय शोभा, उज्ज्वलता एवं उपमा एक जैसी है (अर्थात् एक समान है )। श्री हरिदास जी के प्रिया प्रियतम सम वयस अर्थात् समान आयु के हैं। [3]


Kelimal Ji Ke Pad (2)

(राग कान्हरौ)
रुचि के प्रकास परस्पर खेलन लागे। [1]
राग रागिनी अलौकिक उपजत नृत्य संगीत अलग लाग लागे॥ [2]
राग ही में रंग रह्यौ रंग के समुद्र में दोऊ झागे। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
पै रंग रह्यौ रस ही में पागे॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (2)



निकुंजमहल श्याम श्यामा के बिहार से प्रकाशित है । पुष्पों की सेज पर दोनों एकान्त में विलस रहे हैं । प्रिया जी का मुख चन्द्र प्रफुल्लित है । ललिता सखी संगीत की तान छेड़ रही हैं, जिसे सुनकर प्रिया प्रियतम रास रंग में सराबोर होकर नृत्य करने लगते हैं । 
उनके वचन सखी से -हे सखी ! पिय प्यारी दोनों अपने अपने मनोरथ अनुसार रास खेल रहे हैं। [1]
राग रागिनी यानि प्रिया प्रियतम के स्नेह प्रेम अलौकिक है । नृत्य संगीत के रंग में बिहार के क्रम में चरण पकड़, हृदय स्पर्श आलिंगन अदभुत गति से जलन हो रहा है । भिन्न भिन्न अलग-अलग गति से नृत्य हो रहा है । [2]
दोनों कभी गलबाँही तो कभी संगीत और नृत्य के भेद अनुसार रास में मगन नृत्य कर रहे हैं । उनके अंगों के परस्पर स्पर्श से विभिन्न प्रकार के वाद्य यन्त्रों की बजने की ध्वनि हो रही है । अदभुत नृत्य के राग, स्नेह, प्रेम रूपी समुद्र में प्रफुल्लता से भीगे, डूबे हुए रस का पान कर रहे हैं । प्रियतम मदन मोहन रंग रस के समुद्र संग झूल रहे है । [3]
श्री हरिदासी के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी एवं नित्य विहारिणी के रास खेल में प्यारी जी की जीत हई । प्यारे उनकी जीत पर अति प्रसन्न हुए हैं । पुनः दोनों में आनन्द रस सराबोर हो भींज एक रूप हो गये। [4]


Kelimal Ji Ke Pad (3)

(राग कान्हरौ)
ऐसैंई देखत रहौं जनम सुफल करि मानौं। [1]
प्यारे की भाँवती भाँवती के प्यारे जुगल किशोर जानौं॥ [2]
छिनु न टरौ पल होहु न इत उत रहौ एक तानौं। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी मन रानौं॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (3)



सुन्दर निकुंज महल में पियप्यारी गलबाँहीं दिये विराजित हैं। दोनों ने पुष्पों के आभूषण धारण कर रखे हैं। आनन्द रस सागर में बिहार कर रहे हैं। सखीगण हर्षित हो रही हैं।
ललिता हरिदासी सखी, सखी से कह रही हैं – हे सखी ! रसमत्त पिय प्यारी तन मन से एक हो परस्पर कंधे से कंधा मिला नित नवीन मनोरथों के अनुसार विलस रहे हैं ऐसे अद्भुत सुख को हम देखते रहें, हमारा जन्म सफल हो गया मानो। [1]
प्यारे की भाँवती प्रिया जी एवं भाँवती के प्यारे बिहारी जी एक दूसरे की रुचि अनुसार भाँति भाँति से केलि विलास कर रहे हैं। [2]
आखिरकार ये हैं कौन? इन्हें युगलकिशोर ही समझो, ये एक क्षण भी विछुड़ते नहीं ऐसा ही मैं जानती हूँ, सखी कह रही रही है। युगल किशोर क्यों परस्पर ये कंधों पर बाहें धरे यानि गलबाँहीं दिये बिहार करते हैं। अद्भुत महारस में मगन ये एक पल भी नहीं टलते, अलग नहीं होते, नित्य एक दूसरे के सन्मुख अंग से अंग जुड़े एक मति हो बिहार करते हैं, इधर उधर नहीं होते । [3]
श्री हरिदासी सखी के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी नित्य एक रस एक मन विचार हो बिहार करते है। इनके नित्य बिहार ही आहार हैं। प्यारी जी अपने मन की राजा हैं, मनमौजी हैं, गर्वीली, सुकुमारी हैं। लाल रस के लोभी दीन बने उन पर आसक्त हैं । अत: उन्हें डर रहता है कि प्यारी जी मान न कर बैठे। अत: यह नित्यविहार अनवरत चले। इसमें बाधा न पड़े और हम सखीगण इसे निहारते रहें। [4]


Kelimal Ji Ke Pad (4)

(राग कान्हरौ)
जोरी विचित्र बनाई री माई काहू मन के हरन कौं। [1]
चितवत दृष्टि टरत नहीं इत उत
मन वच क्रम याही संग भरन कौं॥ [2]
ज्यौं घन दामिनि संग रहत नित
बिछुरत नाहींन और वरन कौं। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुँजबिहारी न टरन कौं॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास, केलीमाल (4)



निकुंज महल में प्रिया प्रियतम शैया पर बैठे एक दूसरे का मुख दर्शन करते हुए परस्पर एकटक निहार रहे हैं। आपस की प्रीति ऐसी है कि उन्हें ना दिवस की खबर है ना रात की। दंपति की आसक्तता सुख को सखी जन निरख निरख तृप्त नहीं हो पा रही हैं।
ललिता सखी हरिदासी जी कह रही हैं – यह जोड़ी अति अद्भुत विचित्र है। इनके अंग अंग रस से भरे हैं। मन ही मन में रस की तरंगे उठ रही हैं, वे विचित्र हैं। प्रिया जी ने लाल के मन को तथा लाल जी ने प्रिया के मन का हरण कर लिया है। [1]
प्यारी जी का रूप अद्भुत है, जिसे देख प्यारी ही मोह जाती हैं। ऐसे में प्यारे का क्या कहना। लाल जी की दृष्टि प्रिया पर तथा प्रिया की दृष्टि लालजी पर टिकी है, तनिक भी इधर-उधर नहीं जाती। दोनों ने एक दूसरे के मन का हरण कर लिया है। इसलिए दोनों की दृष्टि कहीं और नहीं जाती। [2]
इनके मन से मन मिले हुए हैं, वचन मृदु हैं, मन को मोहने वाले हैं, नयन की क्रिया परस्पर अवलोकन की है। नेत्रों से ही रूप रस का पान हो रहा है। रूप अंग संग के आस्वादन से उनके मन बड़े थकित हो गए हैं। घन दामिनी जिस प्रकार हमेंशा साथ रहते हैं, उसी प्रकार ये दोनों सर्वदा साथ रहते हैं। यह कभी बिछुड़ते नहीं, अलग नहीं होते। गौर वरन में श्याम वरन बसे हुए हैं। जहाँ-जहाँ इनका मन अटका है, वहाँ के वे बन गये। [3]
हरिदासी जी स्वामी श्यामा कुंजबिहारी दोनों कुंजो में अटल रूप से बिहार करते हैं, कभी टलना नहीं चाहते। [4]


Kelimal Ji Ke Pad (5)

(राग कान्हरौ)
इत उत कौं कौं सिधारति (मेरी) आँखिन आगेंही तू आव। [1]
प्रीति कौ हित हौं तौ तेरौ जानौं ऐसौई राखि सुभाव॥ [2]
अमृत से बचन जिय की प्रकृति सौं मिलै ऐसौई दै दाव॥ [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी
प्रीति कौ मंगल गाव॥ [4]

-ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (05)



पिय प्यारी जी से मधुर वचन बोले – हे प्यारी जी । आप के रसीले नयन क्यों इधर उधर गमन करते हैं। [1]
हे लाड़िली जी ! मेरी आँखें चाहती हैं कि आपके रसभरे कमल नयन मेरी आँखों के आगे आयें, नयन से नयन मिलें तब जाकर मेरी सुख प्राप्त करने की प्रतीक्षा समाप्त होगी, मैं आपका नित्य ही हित चाहता हूँ, आप ऐसा ही स्वभाव मेरे प्रति रखें। [2]
अपने अमृत से वचन अपने हृदय के सरल स्वभाव से मिलाओ, और मुझे यह अवसर प्रदान करो । [3]
श्री हरिदास के स्वामी श्याम कहते हैं कि हे प्यारी, अब तो प्रीति का मंगल गाओ । [4]


Kelimal Ji Ke Pad (6)

(राग कानहरौ)
प्यारी जैसो तेरो आँखिन में मैं होँ अपनपौं देखत,
तैसो तुम देखति हो किधौं नाहीं ||
हौं तोसौं कहौं प्यारे, आँखिन मूंदी रहौं,
लाल निकसि कहूं जाहिं || 

– स्वामी श्री हरिदास, केलिमाल (6)



लाल जी प्रिया जी से कह रहे हैं- हे प्यारी जी ! आपके रस भरे नयनों में मैं अपनापन देख रहा हूँ | क्या आप भी मेरे नयनों में उसी भाँति अपनापन देख रही हैं या नहीं ? प्यारी जी कहने लगी – हे प्यारे ! तुम को मेरी आँखों में बंद कर लूंगीं, मूँद कर रख लूंगीं | देखने की बात क्या कहते हो ? हे प्यारे लाल ! निकल कर कहाँ जाओगे ? नैन रुपी कुंजो में बसों | 


Kelimal Ji Ke Pad (7)

(राग कान्हरौ)
प्यारी तेरौ बदन अमृत की पंक तामें बींधे नैंन द्वै। [1]
चित चल्यौ काढ़नि कौं बिकच संधि संपुट में रह्यौ भ्वै॥ [2]
बहुत उपाइ आहि री प्यारी पै न करत स्वे। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी ऐसैंई रहौ ह्वै॥ [4]

-ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (7)



कुंजमहल में दोनों प्रिया प्रियतम विराज रहे हैं। प्यारे जी कह रहे हैं – हे प्यारी ! मेरे नयन तुम्हारे अमृत रूपी बदन कमल में फँस तुम्हारा रूप रस का पान कर रहे हैं। [1]
तुम्हारे मिलित स्तनयुगल के स्वरूप का अवलोकन करते मेरे नयन उनके रस में फँस गये हैं। [2]
 उसी भाँति अन्य उपाय सब उपाय करके भी यह फँसे ही हुए हैं । [3]
श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि कुंज बिहारी की यही चाह है कि प्यारी जी की रूप माधुरी में यह ऐसे ही रहें । [4]


(राग कान्हरौ)
आवत जात बजावत नूपुर।
मेरौ तेरौ न्याव दई के आगैं
जो कुछ करौ सो हमारे सिर ऊपर॥ [1]
निपट निकट मवास ह्वै रही प्यारी पैंड दूपर।
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
बिलसत निहचल धूपर॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (8)



निकुंज महल में सुंदर सेज शोभायमान है, श्री प्यारी जू आते जाते सुंदर मधुर नूपुरों की धवनि सुन श्री कुंज बिहारी की केली विलास की इच्छा तीव्र हुई। श्री कुंज बिहारी बोले: मेरी इच्छा है कि आप मेरे संग केली विलास करें, बाक़ी आपकी जैसे भी इच्छा हो वह हमारे सिर ऊपर (मुझे स्वीकार है ) । [1]

मेरे हृदय में अपने सुंदर चरण कमल रख, नुपुर बजाकर केली विलास आरम्भ करें, मेरी इस वेदना को समझें ।
श्री हरिदासी [ललिता सखी] कहती हैं कि इस प्रकार श्री कुंज बिहारी श्री राधा जू से प्राथना करते हैं कि हे प्यारी ! तुम्हारा विहार अटल है, सदा सर्वोपरि है, आप सर्वसमर्थ हैं कृपया विहार आरम्भ करें । कुंज बिहारी जी की प्रार्थना सुन प्रिया जी रीझ गयी, एवं प्रिया जी ने सर्वोपरि रस बरसाया। [2]


(राग कान्हरौ)
दृष्टि चौंप बर फंदा मन राख्यौ लै पंछी बिहारी।
चुनों सुभाव प्रेम जल अंग स्त्रवत
पिवत न अघात रहे मुख निहारी॥ [1]
प्यारी प्यारी रटत रहत छिन ही छिन याकें और न कछु हिया री।
सुनी हरिदास पंछी नाना रंग देखत ही देखत ही प्यारी जू न हारी॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (9)



श्री राधा की रस भरी दृष्टि ही एक फंदे के समान है जिसमें बिहारी [कृष्ण] रूपी पक्षी नित्य ही फँसा हुआ है । श्री प्यारी जू का कृपालुता का स्वभाव इस बिहारी पक्षी का पोषण करता है । श्री प्यारी जू के रोम रोम से केवल रस टपकता है, वही प्रेम रंग रस यह बिहारी पक्षी पीता रहता है परंतु कभी भी संतुष्ट नहीं होता । [1]
यह बिहारी पक्षी नित्य ही “प्यारी प्यारी” रटता रहता है, इसके हृदय में प्यारी जू [राधा] के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । हे हरिदास [श्री ललिता सखी अपनी हरिदास रूपी देह से कहती हैं ]: यह बिहारी पंछी नाना प्रकार से केली कर प्यारी जू का मुख ही निहारता रहता है, और कभी भी हार नहीं मानता । [2]


(राग कान्हरौ)
भूलैं-भूलैं मान न करि री प्यारी,
तेरी भौंहें मैली देखति प्रान न रहततन। [1]
ज्यौं न्यौछावर करौं प्यारी तो पै,
काहे तैं तू मूकी कहत श्यामघन॥ [2]
तोहि ऐसैं देखत मोहिंब
कल कैसें होइ जु प्रान-धन। [3]
सुनि हरिदास काहे न कहत,
सौं छाँड़िब छाँड़ि आपनौं पन॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (10)



श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं, जब श्री हरिदासी [ललिता सखी] भी उनके पास ही खड़ी हैं । 
हे राधे, भूल से भी आप हमसे मान मत कीजिये! जब मैं आपकी भौंहों चढ़ी हुई [मान अवस्था] को देखता हूँ तब मेरे प्राण ही निकल जाते हैं। [1]
श्री श्याम सुन्दर पुन: कहते हैं कि मैं अपना सर्वस्व आप पर न्यौछावर करता हूँ, हे प्यारी जू, आप चुप क्यों हो? [2]
जब मैं आपको इस अवस्था में देखता हूँ तब मुझे एक क्षण को भी सुख अनुभव नहीं होता, आप ही मेरी प्राण धन हो। [3]
सुनो, हे हरिदासी, आप श्री प्यारी जू को अपना मान छोड़ने के लिए क्यों नहीं कहती? [4]


(राग कान्हरौ)
बात तौ कहत कहि गई अब कठिन परी बिहारी ।
प्रान तौ नाहींने तन अस्तविस्त भये कहै कहा प्यारी ।।
भाँवते प्रकृति देखत जु स्रम भयौ बहुत हिया री ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम बाहु सौं बाहु मिलाय रहे मुख निहारी।।

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, केलीमाल (11)



निकुंज महल में प्रिया प्रियतम सुख सेज विराजमान है । बिहारी जी बिहार की विनती कर रहे हैं । प्यारे जी की बात पर प्यारी जी को विश्वास नहीं । वह मुख फेर हँसती हैं । उनके कर्ण तक लंबे खींचे चंचल नेत्र मुख पर शोभायमान हो रहे हैं । कर कमलों से अपने मुख को ढक लेती हैं । प्यारी जी से प्रियतम मधुर वचन कहते हैं – महाप्रेम से आपका संपूर्ण शरीर पुलकित हो उठा है । बिहारी जी की प्रेम विह्वलता की दशा देख सखी हरिदास जी कहती हैं – प्रतीत होता है कि प्यारे के तन प्राण रहित हैं, इनको अपनी सुध नहीं । तुम इतनी रुखाई से पेश आ रही हो । बिहारी जी के ह्रदय को अमित श्रम करना पड़ रहा है, व्याकुलता से भरे पड़े हैं । श्री हरिदास सखी अपनी स्वामिनी श्री श्यामा एवं स्वामी श्री कुंज बिहारी को अपने अंक में बाहु से बाहु जुड़ा कर मिलाकर लाड लड़ा रही हैं, मुख निहार रही हैं एवं बिहार करने को प्रेरित कर रही हैं ।


(राग कान्हरौ)
कुंजबिहारी हौं तेरी बलाइ
लेऊँ नीके हौ गावत।
राग रागिनीन के जूथ उपजावत।।
तैसीयै तैसी मिली जोरी
प्रिया जू की मुख देखत चंद लजावत।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कौ
नृत्य देखत काहि न भावत।।

– श्री हरिदास, केलिमाल (12)



कुंजबिहारी की भावना है प्यारी जी आप मुझे अंग संग कर कुंजों विहार कर रही हैं , मैं आप की बलायें यानि बलिहारी पर लेता हूँ, आप अपनी कृपालुता बरसाती रहें , आप इसी भांति रहें , बोलें , गाती रहें । आप के आलिंगन से अनेक मनोरथ पूर्ण होते हैं , नये उपजते भी उपजते हैं । सखी बोली – प्रिया जी की मुख चन्द्र के आगे लाल जी का मुख चन्द्र फीका प्रतीत हो रहा है । प्रिया जी के अंग के सम्मुख प्रिय का अंग दब गया है या कहीं छिप गया है । हरिदासी सखी यहाँ सुख विलास रति में किन का नृत्य विशेष है , दर्शाना चाह रही हैं । श्री श्यामा जी का नृत्य श्वास है , यह सुन श्री श्याम जी प्रसन्नता से बोल पड़े , आप की कृपा से श्यामा प्यारी जी नृत्य कर रही हैं , सो मैं बलि बलि जाऊँ ।


(राग कान्हरौ)
एक समै एकांत बन में करत सिंगार परस्पर दोई।
वे उनके वे उनके प्रतिबिंबनि देखत रहत परस्पर भोई॥ [1]
जैसैं नीके आजु बनैं ऐसौं कबहूँ न बनैं
आरसी सब झूँठी परी कैसीयैब कोई॥ [2]
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रीझि परस्पर प्रीनि नोई॥ [3]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (13)



एक समय एकांत वन में प्रिया प्रियतम [श्री राधा कृष्ण] एक दूसरे का शृंगार कर, एक दूसरे का प्रतिबिम्ब देख रहे हैं । [1]
जैसा आज का श्रृंगार है वैसा अद्भुत श्रृंगार पहले कभी नहीं देखा, आज के श्रृंगार के सामने तो मानो आईना ही झूठा पड़ गया [आईना भी असमर्थ है आज के श्रृंगार की शोभा को चित्रित करने के लिए] । [2]
ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि तत्पश्चात श्री राधा कृष्ण एक दूसरे पर रीझ कर विहार [प्रेम] में तल्लीन हो एक हो गए । [3]


(राग कान्हरौ)
राधे चलि री हरि बोलत कोकिला अलापत
सुर देत पंछी राग बन्यो। [1]
जहाँ मोर काछ बाँधे नृत्य करत
मेघ मृदंग बजावत बंधान गन्यौ॥ [2]
प्रकृति की कोऊ नाहीं यातें सुरति के
उनमान गहि हौं आई मैं जन्यौ। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी की
अटपटी बानि औरै कहत कछु औरे भन्यौ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (14)



श्री हरि [कृष्ण] श्री राधा से बोलते हैं: चलिए कुंज में, जहां कोयल आलाप दे रही है, सुर पंछी गान कर रहे हैं मानो राग में गा रहे हों । [1]

जहां मोर भी पंख फैला फैला कर नाच रहे हैं, एवं मेघ की गरजन भी मृदंग के समान है । [2]

यह और कुछ नहीं, इस बंधे हुए सुर ताल के क्रम में प्यारे को प्यारी की प्रकट मिलाप [मिलन] की चाहत है। श्री कृष्ण श्री राधा के नृत्य देखने की अभिलाषा लिए उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, बाट जोह रहें हैं, कब राधा जी चलें? [3] 

श्री हरिदास जी की स्वामिनी श्याम से कहा- प्यारे तुम्हारी एक दम अटपटी वाणी है, आपकी चाह कुछ है और कह कुछ रहे हो । [4]


(राग कान्हरौ)
तेरौ मग जोवत लाल बिहारी।
तेरी समाधि अजहूँ नहीं छूटत चाहत नाहिंने नेंकु निहारी॥ [1]
औचक आइ द्वै कर सौं मूँदे नैंन अरबराइ उठी चिहारी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा ढूँढ़त बन में पाई प्रिया दिहारी॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (15)



श्री हरिदासी सखी कहती हैं कि हे प्यारी जू, श्री बिहारीजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, आप हैं कि समाधि लिए बैठी हैं, एवं समाधि भी आप तोड़ना नहीं चाहती, आप श्री बिहारी जी को क्यों नहीं निहारना चाहती? [1]
अचानक श्री बिहारीजी आए एवं उन्होंने अपने हाथों से श्री प्यारी जू की आँखें मूँद दी, और वह शोर मचाने लगी । श्री बिहारीजी ने पूरे निकुंज वन में ढूँढा परंतु उन्हें प्यारी जू प्रवेश द्वार पर मिलीं । [2]


(राग कान्हरौ)
मानि तूब चलि री एक संग रह्यौ कीजै ।
तौ कीजै जो बिन देखे जीजै ॥ [1]
ये स्याम घन तुम दामिनी प्रेम पुंज बरषा रस पीजै ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सौं
हिलि मिलि रंग लीजै ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (16)



सखी श्री राधे की मान की सम्भावना देख बोली – नयन बाँके कर कहाँ चली, हे मानिनी, आप दोनों एक संग रहें। ऐसा तभी कीजिए यदि आप उनके बिना जी सकती हैं । प्रिय [कृष्ण] तुम बिना, तुम [राधा] इनके बिना नहीं रह सकतीं । [1]

श्यामसुंदर तो श्याम घन हैं, आप दामिनी हैं, आप दोनों अंग-अंग संग कर अपार प्रेम रस की वर्षा करें एवं उसी रस का आस्वादन करें ।
श्री हरिदासी सखी कहते हैं: हे हरिदासी की स्वामिनी आप कुंज बिहारी से हिल मिल जाओ, एक हो जाओ, और रस रंग लो। [2]   


(राग कान्हरौ एवं धनाश्री)
तू रिस छाँड़ि री राधे राधे। [1]
ज्यौं ज्यौं तोकौं गहरु त्यौं त्यौं मोकौं बिथा री साधे साधे॥ [2]
प्राननि कौ पोषत है री तेरे बचन सुनियत आधे आधे। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी तेरी प्रीति बाँधे बाँधे॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (17)



श्री कुंज बिहारी लाल प्यारी जू से कहते हैं कि हे राधे, हे राधे, आप अपना मान त्याग दीजिए । [1]
आपका मान जितना जितना बढ़ता है उतना उतना मुझे कष्ट होता है । [2]
आपके मधुर वचन ही मेरे प्राणों का पोषण करते हैं । [3]
श्री हरिदास जी के स्वामी श्री श्याम सुंदर श्यामा जू से कहते हैं कि आपकी प्रीति मुझे नित्य ही वश में करके रखती है। [4]


(राग कान्हरौ)
आज तृण टूटत है री, ललित त्रिभंगी पर |
चरन-चरन पर मुरली अधर धरैं, चितवनि बंक छबीली भू पर ||
चलहु न बेगि राधिका पिय पै, जो भयौ चाहत हौ सर्वोपर |
श्री हरिदास के स्वामी कौ समयौ अब, नीकौ बन्यौ,
हिल मिल केलि अटल रति भई धू पर ||

– केलिमाल, स्वामी श्री हरिदास(18)



कुंजमहल में विराजमान प्यारे पर प्यारी जी कृपा बरसा रही हैं। प्यार से कहती हैं – हे प्यारे !  मैं बिहारी बनूंगी और आप प्यारी बने । दोनों ने अपने रूप सज्जा वेष पलट लिए । इनकी शोभा सखी प्रिया रूप पिय से कहती हैं – प्रिया जी पिय बन ललित त्रिभंगी हो गई हैं । सखीजन त्रिभगता को शोभा देख बलि – बलि हो रही हैं । दष्टि बचाकर सखीगण तृण तोड रही है । प्रियतम प्यारी बने मानिनी हो रहे हैं । पियरूप प्यारी जी आतुर हो चरण पर चरण रख रही हैं तथा अधर पर मुरली धारण कर रखी है । नेत्रों को बाँके कर दुल्हिन बने पिय को वश में करना चाह रही हैं । चितवन को टेढ़े कर छबीली की शोभा वर्णातीत है ।प्यारी जी वेग से चलें । यहाँ राधिका जी पिय बनी आपका इन्तजार कर रही हैं । आपके मनोरथ मनोकामनापूर्ण अंगों से मिलकर बिहार करें, इसी कारण आप श्यामा बनी और वे श्याम बने । हरिदास की स्वामीनि श्यामा जी का समय अति उत्तम है , श्यामा श्याम बन बैठी हैं । आपके बिहार का समय हो रहा है , चाहत भी । केलि अटल हैं , पर आज रति अटल भई हैं ।


(राग कान्हरौ)

राधे दुलारी मान तजि।

प्रान पायौ जात है री मेरौ सजि॥ [1]

अपनौं हाथ मेरे माथे धरि अभै दान दै अजि।

श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी

रंग रुचि सौं बलि लजि॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (22)

श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं: हे दुलारी राधे, आप मान तज प्रसन्न हों। आपकी चढ़ी हुई चितवन मुझे अत्यंत भयभीत कर रही है। आपकी प्रसन्नता में मेरे प्राण बसते हैं । [1]

 आप कृपा करके अपने कर कमल मेरे मस्तक पर रखिये, एवं मुझे अभय दान दीजिए । श्री हरिदास जी के स्वामी श्याम स्वामिनी श्यामा जू से कह रहे हैं – आपके हृदय में भी तो कलि की भावना है। आपकी रुचि रूपी रंग जैसी आपकी वैसी ही हमारी है, क्यूँ मान कर रही हैं । श्री बिहारी जी के आग्रह पर उन्होंने रोष त्याग दिया तथा अंग से अंग मिला दोनों विहार में निमग्न हो गये। [2]


(राग कान्हरौ)
गुन की बात राधे तेरे आगैं को जानैं
जो जानैं सो कछु उनहारि। [1]
नृत्य गीत ताल भेदनि के बिभेद जानैं
कहूँ जिते किते देखे झारि॥ [2]
तत्त्व सुद्ध स्वरूप रेख परमान
जे बिज्ञ सुधर ते पचे भारि। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी नैंक
तुम्हारी प्रकृति के अंग अंग और गुनी परे हारि॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (23)



श्री ललिता सखी [श्री हरिदासी सखी] निकुंज विहारिणी श्री राधा जू के गुणों का वर्णन कर रही हैं : “हे राधे, ऐसा कौन है जो आपके गुणों का वर्णन करने में समर्थ हो?” वह जो कुछ यदि थोड़ा जानता है वह आपका ही प्रतिबिंब होगा । [1]

कोई भी नृत्य, गीत और तालों के रहस्यों को पूर्ण रूप से आपके अतिरिक्त नहीं जानता है, चाहे वह कितना ही उसमें विशेषज्ञ एवं निपुण क्यूँ न हो । [2]

इन कलाओं का तत्व, शुद्ध स्वरूप, दायरा एवं सीमा [कोई नहीं जानता], जो इनमें निपुण हैं, उन्होंने श्रमपूर्वक इन्हें जानने की कोशिश की, परंतु उनका यह परिश्रम व्यर्थ है । [3]


(राग कान्हरौ)
सुघर भयै हौ बिहारी याही छाँह तें।
जे जे गटी सुघर सुर जानपनें की
ते ते याही बाँह तें ।। [1]
हुते तौ बड़े अधिक सब ही तैं,
पै इनकी कस न खटात याँह तैं ।। [2]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
जकि रहे चाह तें ।। [3]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (24)



सखी [ललिता] श्री राधिका से कहती हैं: प्यारी राधे, श्री बाँके बिहारी जी आपकी छाया [चरण कृपा के बल] से ही सुघर [चतुर, कुशल] बन पाये हैं । उनका पूर्ण आकर्षण, निपुणता एवं ज्ञान श्रीजी [राधा] की कृपा से ही है। [1]

यूँ तो वह समस्त कुशलों में भी कुशल हैं एवं सबसे बड़े हैं फिर भी, हे राधे तुम्हारे सामने इनका कोई बल नहीं चलता (अर्थात् इनकी चातुरी, सकल मर्मज्ञा,कला इत्यादि श्यामा जू के समक्ष नहीं ठहर सकती), तुम्हारे समक्ष यह भी दीन ही रहते हैं एवं इन्हें भी कड़ी परीक्षा देनी पड़ती है । [2]

अनन्य नृप्ति ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी महाराज कहते हैं कि श्री बिहारीजी नित्य ही विहार की चाह रखते हैं एवं तुम्हारी कृपा से ही यह नित्य विहार का रस पाते हैं । [3]


(राग कान्हरो)
राधा रसिक कुंजबिहारी कहत जु हौं
न कहूँ गयौ सुनि सुनि राधे तेरी सौं ॥ [1]
मोहिं न पत्याहु तौ संग हरिदासी हुती
बूझि देखि भटू कहिधौं कहा भयौ मेरी सौं ॥ [2]
प्यारी तोहिं गठौंद न प्रतीति छाँड़ि छिया
जानि दे इतनीब एरी सौं । [3]
गहि लपटाइ रहे छैल दोऊ
छाती सौं छाती लगाई फेरा फेरी सौं ॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (25)



रसिक श्री कुंजबिहारी श्री राधा से कहते हैं – प्यारी राधे, सुनो! आपकी सौगंध, में आपको छोड़ कर कहीं नहीं गया । [1]

यदि आपके हृदय में संदेह उत्पन्न हो रहा तो श्री हरिदासी सखी जो संग में है उनसे कृपा कर पूछिए । श्री कुंजबिहारी श्री हरिदासी से कहते हैं कि हे सखी, मेरी शपथ खाकर बताओ कि क्या हुआ था । [2]

श्रीहरिदासी श्रीराधा से कहती हैं कि हे प्रिया जू, क्या आपको उनकी प्रतिज्ञा पर विश्वास नहीं है? कृपया कर अपने मान को त्याग दें, मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करती हूं । [3]

श्री हरिदासी के वचन सुनकर दोनों छैल (प्रिया प्रियतम) ने एक-दूसरे को गले लगा लिया और नित्य विहार में अंग से अंग मिला कर लिपट गये । [4]


(राग कानहारौं  )
प्यारी तेरी महिमा वरनी न जाय
जिहिं आलस काम बस कीन।
ताकौ दंड हमैं लागत है री भए आधीन।
साढे ग्यारह ज्यौं औंटि दूजे नव सत साजि सहज ही
तामैं जवादि कर्पूर कस्तूरी कुमकुम के रंग भीन।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रस बस करि लीन।।

 श्री हरिदास, केलिमाल (26)



प्रियतम कह रहे हैं- आपकी महिमा का वर्णन मैं कैसे करुँ ? मुझे काम – प्रेम ने बस मे कर रखा और आप अति सुकुमारी हैं, आलस में केलि को बिसार दिया। आपके लिए मैं चाहना रुपी काम में भींज रहा हूँ, उसका दंड मुझे भरना पड़ रहा है क्योंकि कामना के आधीन हूँ।  आपने स्वर्ण समान तन में सोलहश्रृंगार कर रखा है। मेरा वर्ण तो श्याम है और आप के महा कंचन रुपी तन कुमकुम, कपूर, कस्तूरी, जावदि के सुगंध रंग से भीगा हुआ मनोहर है। श्री हरिदास जी की स्वामिनी श्री राधे जी ने श्याम कुञ्ज बिहारी को रस बस में लीन कर रखा है ।     


(राग कान्हरौ)
नील लाल गौर के ध्यान बैठे कुंजबिहारी ।
ज्यौं ज्यौं सुख पावत नाहीं त्यौं त्यौं दुख भयौ भारी ॥ [1]
अरबराइ प्रगट भई जु सुख भयौ बहुत हिया री।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी करि मनुहारी ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (28)



दिव्य दम्पति श्री कुंज बिहारी बिहारीनी विभिन्न रत्नों से जटित शैया पर विराजमान हैं । श्री लाडिली जी के अति अद्भुत श्रृंगार ने श्री लाल जी को मोह लिया है । यद्यपि वे दोनों एक साथ हैं, फिर भी, श्री लालजी [कृष्ण] की लालसा पल-पल बढ़ती जा रही है। [इस अति अद्भुत नित्य विहार रस में हर क्षण साथ रहने पर भी लालसा पल पल बढ़ती रहती है ।]

श्री कुंजबिहारी गौर वर्ण वाली श्री कुंजबिहारिनी [राधिका] जो नीले एवं लाल रंग के वस्त्रों एवं आभूषणों से सुस्जित हैं, उनके अति अद्भुत रस के ध्यान में बैठे हैं । ज्यौं ज्यौं वह इस रस से वंचित हैं त्यौं त्यौं उनकी पीड़ा [लालसा] बढ़ रही है ।  [1]

जब श्री लालजी [कृष्ण] आतुर हो उठे, तब श्री लाडिली जी रस प्रदान करने के लिए प्रकट हो गयी। अब, श्री लाल जी के हृदय को बहुत सुख मिला । श्री कुंज बिहारी श्री हरिदास जी [ललिता अवतार] की स्वामिनी श्री श्यामा जू की मनुहारी [उनकी महिमा का गान] करने लगे । [2]


(राग कान्हरौं)
आजु की बानिक प्यारे तेरी , प्यारी तुम्हारी छवि बरनी न जाइ छबि।​
इनकी स्यामता , तुम्हारी गौरता, जैसे सित-असित बैनी, रही ज्यौं भुवंगम दबी ।।​
इनकौ पीताम्बर, तुम्हारौ नील निचोल, ज्यों ससि कुंदन जेब रबि।​
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी की,​सोभा बरनी न जाये, जो मिलें रसिक कोटि कवी ।।

– श्री हरिदास, केलिमाल (29) 

सखी प्रिया प्रियतम से कह रही है – आज आप दोनों की शोभा ऐसी बनी सो न कभी नहीं देखी । इस छवि का वर्णन नहीं किया जा सकता । प्यारी जी ! प्यारे की श्यामता आपकी गौरता में लीन हो झलक रहा है । प्रिय के अंग का प्रतिबिम्ब प्यारी जी के अंगों में तथा प्यारी जी के अंगों का प्रतिविम्ब प्रिय के अंगों से दरस रहा है । मानो श्याम वर्ण अंगों की श्यामलता ने गौरवर्ण अंगों की गौरता को दबा रखा हो । प्यारे जी का श्रृंगार पिताम्बर है तो आपके कंचन रूपी तन पर नीले रंग की ओढ़नी शोभा पा रही है । आपका मुख चन्द्रमा समान है और ये बिरह रूप रवि हैं । हरिदासी सखी की स्वामिनी राधे जी कैसी है ? यद्यपि  कुंजबिहारी की शोभा का बिहार में वर्णन करना संभव नहीं परन्तु बिहारिनी जी जो कृपालता से भरी राशि है , उनकी शोभा का वर्णन कोटि रसिक सखी जन भी करने में समर्थ नहीं है । हरिदासी सखीजन भी करने में समर्थ नहीं है । हरिदासी सखी कह रही हैं हम आप दोनों की सुन्दर छवि , शोभा दर्शन जो सुख की राशि हैं, की शोभा का वर्णन कैसे करें ? 


(राग कान्हरौं)
देखि देखि फूल भई।
प्रेम के प्रकास प्रीति के आगैं ह्वै जु लई॥[1]
सुनि री सखी बागौ बन्यौ आजु
तुम पर तृन टूटत है जु नई।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
सकल गुन निपुन ताताथेई ताथेई गति जु ठई ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (30)


 
श्री बिहारी-बिहारिनी जी के अंग अंग में पुष्पों का शृंगार है जो महा आनन्द का प्रकाश फैल रहा है । ललिता सखी हरिदास जी सखीजन सभी फूलों के शृंगार को निहार फूल रही हैं। 
श्री स्वामिनी जी आज बहुत कृपाल हैं, प्रेम रस केली विलास को उत्सुक हैं, जिसकी चाह जान कर श्री लाल जी ने अपनी प्रीति भी उसी में मिलाकर कहा कि आज हम दोनों प्रेम का प्रकाश करते हैं  । [1]
 
इसी प्रसन्नता में पिय ने उन्हें एक लंबे अदभुत पहनावा ‘बागौ’ [दुल्हन का पहनावा] को पहना दिया है ।श्री राधिका ज़ू सखी से कहती हैं: “सुनो सखी, आज लालजी ने ‘बागौ’ पहनाया हमें”। इसे देख [श्री राधा को अत्यंत सुखी देख] सखियाँ अपना सर्वस्व श्री राधिका ज़ू पर बलिहार करती हैं । श्री हरिदास जी की दिव्य दम्पति श्री श्यामा कुंज बिहारी समस्त गुणों में निपुण हैं, अत: वह “ता….ता…थई” कर नृत्य करने लगे । [2]


(राग केदारौ)
ऐसी तौ बिचित्र जोरी बनी।
ऐसी कहूँ देखी सुनी न भनी॥
मनहुँ कनक सुदाह करि करि देह अद्भुत न ठनी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम तमालै उछंगि बैठी धनी॥

– ललिता अवतार श्री हरिदास जी, केलीमाल (31)



दिव्य वृन्दावन के निकुंज में प्रिया-प्रियतम की विचित्र जोड़ी अति शोभायमान है मानों श्याम तमाल पर कंचन बेलि श्यामा जी लिपटी हुई हैं। इस शोभा को निरख सखी हरिदास जी बोली-ऐसी विचित्र अद्भुत जोड़ी अपने अंगों में नयी-नयी उमंग लिए विराज रही है। ऐसी छवि पूर्व में कभी देखी न सुनी ।


(राग कान्हरौं)
हँसत खेलत बोलत मिलत देखौ मेरी आँखिन सुख।
बीरी परस्पर लेत खवावत ज्यौं घन दामिनि
चमचमाप सोभा बहु भाँतिन सुख॥ [1]
स्तुति घुरि राग केदारौ जम्यौ
अधराति निसा रोम रोम सुख।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
के गावत सुर देत मोर भयौ परम सुख ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (32)



श्री हरिदासी सखी अन्य रसिक सखियों से कहती हैं: दिव्य दंपति  प्रीतम प्यारी रस भरे सागर में हँस हँस – मिल कर खेल – खेल रहे हैं, बातें कर रहे हैं और रस में भरे हुए हैं। प्रेम रस की वर्षा हो रही है, यह दुर्लभ अपार सुख मेरी आँखों में झलक रहा है। 
वे एक दूसरे को पान खिला रहे हैं, [उनकी] सुंदरता घन दामिनी की तरह चमक रही है, और बहुत भाँति रस का वर्षण कर रहे हैं । [1]

दोनों की रतिक्रीडा के स्नेह में मानो राग केदार का प्राकट्य हुआ एवं रोम रोम में सुख का वर्षण हुआ । यहाँ प्रेम रस के तीन भावों में अधराति निसा यानि मध्य समय है, रोम रोम केलि सुख में रम रहा है । श्री हरिदासी सखी के स्वामी श्री श्यामा श्याम प्रेम गान कर रहे हैं, जिसे सुनकर मोर भी एकत्रित हो गए, एवं परम रस का प्राकट्य हुआ । [2]


(राग केदारौ)
अद्भुत गति उपजति अति नृत्तत
दोऊ मंडल कुँवर किसोरी । [1]
सकल सुधंग अंग भरि भोरी पिय नृत्तत
मुसिकनि मुख मोरी परिरंभन रस रोरी ॥ [2]
ताल धरैं बनिता मृदंग चंद्रागति
घात बजै थोरी थोरी । [3]
सप्त भाइ भाषा बिचित्र
ललिता गायनि चित चोरी ॥ [4]
श्रीबृन्दाबन फूलनि फूल्यौ पूरन ससि
त्रिबिध पवन बहै थोरी थोरी । [5]
गति बिलास रस हास परस्पर भूतल अद्भुत जोरी ॥ [6]
श्रीजमुना जल बिथकित पुहुपनि बरषा
रतिपति डारत त्रिन तोरी । [7]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
कौ रस रसना कहै को री ॥ [8]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (33)



मंडलाकार सखियों के मध्य श्री श्यामा-श्याम नृत्य कर रहे हैं जिससे अद्भुत गति प्रकट हो रही है । [1]

भोरी श्री राधा एवं श्याम सुंदर अंग-से-अंग मिलाकर सुधंग नृत्य कर रहे हैं, मुख मोड़ कर मुस्कुरा रहे हैं एवं आलिंगन कर रहे हैं जिससे रस प्रकट हो रहा है । [2]

सखी मृदंग बजा रही है, उसपर धीमी घात लगाकर ताल बंधा रही है । [3]

श्री ललिता जू विचित्र बाषा एवं सप्त सुरों में मधुर गान कर चित्त का आकर्षण कर रही हैं । [4]

श्री वृन्दावन खिले हुए पुष्पों से आच्छादित है, आकाश में पूर्ण चंद्र हैं एवं मंद-सुगंध सहित धीमी पवन बह रही है । [5]

नृत्य में गति-विलास एवं परस्पर में हास-परिहास करते हुए भूतल पर यह अद्भुत जोरी प्रकट हुई है । [6]

श्री यमुना जी का जल थकित हो गया है, आकाश से पुष्पों की वर्षा हो रही है एवं कामदेव इस सुन्दर जोरी पर तृण तोड़ रहे हैं अर्थात स्वयं को न्योंछावर कर रहे हैं । [7]

स्वामी श्री हरिदास जी के स्वामी श्री श्यामा-कुंजबिहारी के इस अद्भुत रस का वर्णन कौन कर सकता है ? [8]


(राग केदारौ)
प्यारी जू जब जब देखौं तेरो मुख तब तब नयों नयों लागत।
ऐसे भ्रम होत मैं कहूँ देखि न री दुति कौं दुति लेखनी न कागत॥ [1]
कोटि चन्द्र तैं कहाँ दुराये री नये नये रागत ।
श्री हरिदास के स्वामी स्याम कहत काम की सांति
न होई न होई तृप्ति रहौं निसी दिन जागत ॥ [2]

– स्वामी हरिदास, केलीमाल (34)



श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं: हे प्यारी जू, जब भी मैं तुम्हारे मुखकमल को देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मैं तुम्हें पहली बार देख रहा हूं। ऐसा भ्रम हो जाता है मानो मैंने ऐसी सुंदरता पहले कभी नहीं देखी हो ।   ऐसी सुन्दर एवं दिव्य छवि की शोभा का वर्णन करने को न ही कोई कलम है और न कोई कागज ही है । [1]

हे प्यारी जू! ऐसे कोटि दीप्तिमान चंद्रमाओं की कांति को तुम कैसे छुपा लेती हो, जिनकी नवीन माधुरी का पान कर मैं नित्य मोहित होता रहता हूँ । श्री हरिदास के स्वामी श्री श्यामसुंदर कहते हैं कि “मेरी इच्छा कभी कम न हो, कभी संतुष्टि न मिले, और मैं रात-दिन तुम्हारी रूप माधुरी में छक कर जागता रहूँ।” [2]


(राग केदारौ)
ऐसी जिय होत जो जिय सौं जिय मिलै
तन सौं तन समाइ लैहुँ तौ देखौं कहा हो प्यारी । [1]
तोही सौं हिलगि आँखैं आँखिन सौं मिली रहैं
जीवत कौ यहै लहा हो प्यारी ॥ [2]
मौकों इतौ साज कहाँ री हौं अति दीन तुव बस
भुव छेप जाइ न सहा हो प्यारी । [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत राखि लै री
बाहु बल हौं बपुरा काम दहा हो प्यारी ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (35)



श्री श्यामसुंदर प्यारी श्री राधा से कहते हैं – हे प्यारी जू, मेरी ऐसी इच्छा हो रही है कि हृदय से हृदय मिल जाये, तन में तन समा जाय, परन्तु हे प्यारी,  फिर मैं आपके दर्शन कहाँ कर पाउँगा ? [1]

आपसे लगी हुई मेरी आंखें आपकी आँखों से मिली रहें, जीवित रहने के लिए यही पर्याप्त है । [2]

हे प्यारी ! मेरा इतनी सामर्थ्य कहाँ है, मै अति दीन आपके वश (शरण) में हूँ । आपकी उठी हुई भृकुटि मुझसे सही नहीं जाती । [3]

श्री स्वामी हरिदास जी के स्वामी श्री श्यामसुन्दर श्री श्यामा जू से कहते हैं कि हे प्यारी जू, मुझे अपने भुज-पाश में ले लीजिये, मैं बेचारा कामाग्नि से जल रहा हूँ । [4]


(राग केदारौ)
ऐसी जिय होत जो जिय सौं जिय मिलै
तन सौं तन समाइ लैहुँ तौ देखौं कहा हो प्यारी । [1]
तोही सौं हिलगि आँखैं आँखिन सौं मिली रहैं
जीवत कौ यहै लहा हो प्यारी ॥ [2]
मौकों इतौ साज कहाँ री हौं अति दीन तुव बस
भुव छेप जाइ न सहा हो प्यारी । [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत राखि लै री
बाहु बल हौं बपुरा काम दहा हो प्यारी ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (35)



श्री श्यामसुंदर प्यारी श्री राधा से कहते हैं – हे प्यारी जू, मेरी ऐसी इच्छा हो रही है कि हृदय से हृदय मिल जाये, तन में तन समा जाय, परन्तु हे प्यारी,  फिर मैं आपके दर्शन कहाँ कर पाउँगा ? [1]

आपसे लगी हुई मेरी आंखें आपकी आँखों से मिली रहें, जीवित रहने के लिए यही पर्याप्त है । [2]

हे प्यारी ! मेरा इतनी सामर्थ्य कहाँ है, मै अति दीन आपके वश (शरण) में हूँ । आपकी उठी हुई भृकुटि मुझसे सही नहीं जाती । [3]

श्री स्वामी हरिदास जी के स्वामी श्री श्यामसुन्दर श्री श्यामा जू से कहते हैं कि हे प्यारी जू, मुझे अपने भुज-पाश में ले लीजिये, मैं बेचारा कामाग्नि से जल रहा हूँ । [4]


(राग केदारौ)
प्यारी तेरी बॉफिन बान सुमार लागै भौहें ज्यों धनुष ।
एक ही बार यौं छूटत जैसें बादर बरषत इन्द्र अनख ॥ [1]
और हथियार को गनैं री चाहनि कनख ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी सौं
प्यारी जब तू बोलति चनख चनख ॥ [2]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (37)



श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं – हे प्यारी जू! आपकी चितवनि अर्थात् पलकें बाण के समान हैं एवं भौंहें धनुष के समान हैं जिसके प्रहार से कोई नहीं बच सकता । यदि एक साथ इस धनुष के बाण छूट जायें तो ऐसा रस बरसता है मानो इंद्र के क्रोध से भयंकर बादल बरसने लगें । [1]

यह तो एक तिरछी नज़र का कमाल है, तुम्हारे अन्य हथियारों की गणना कौन करे, जब श्री हरिदास जी की स्वामिनी (श्यामा प्यारी), श्री कुंज बिहारी से मान करके बोलती हैं, तो उसका तो कहना ही क्या । [2]


(राग केदारौ)
रोम रोम जो रसना होती तऊ तेरे गुन न बखाने जात । [1]
कहा कहौं एक जीभ सखी री बात की बात बात ॥ [2]
भानु स्त्रमित और ससि हु स्त्रमितभये और जुवति जात । [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी
तू राखति प्रान जात ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (40)



लाड़िली लाल सुन्दर गुलाबों की पत्तियों की सेज पर शोभायमान हो रहे हैं । महा आनन्द रस में पगे हुए हैं । प्यारे प्रियतमा की कृपा में भींगे हुए रोम रोम से प्रेमरस पी रहे हैं । प्रिय कह रहे हैं- मेरे रोम-रोम में जिह्वा ( रसना ) होती तो भी वह आपके गुणों के बखान करने में असमर्थ रहती। [1]
क्या कहूँ, मात्र एक जीभ है और आपके गुणों को एक जीभ से कथन की बात है। मैं तो हार चुका हूँ , कुछ भी कहा नहीं जाता । [2]
आपके गुणों का वर्णन करते हुए सूर्य, चंद्र, एवं नव युवती समूह सब ही श्रमित हो गए एवं थकित हो कर मानो हार मान गए हैं । [3]
श्री हरिदासी के स्वामी श्याम, श्यामा जी से कह रहे हैं – मैं आपके कुंज रूपी तन में सदा विहार करता हूँ । आप मेरे जाते हए प्राणों की रक्षा करती हैं । आप अपनी कृपा से पोषण न करतीं तो मेरे प्राण कब के निकल जाते । [4]


॥राग केदारौ॥
तुव जस कोटि ब्रह्मांड बिराजै राधे । [1]
श्री सोभा बरनी ने जाय अगाधे ॥ [2]
बहुतक जनम बिचारत ही गये साधे साधे । [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी
ए दिन मैं क्रम क्रम करि लाधे ॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (41)

भावार्थ:
प्यारी को अति प्रसन्न देख प्यारे जी कह रहे हैं – हे राधे, आपका यश प्रताप कोटि – कोटि ब्रह्मांड में विराज रहा है । [1]
आपसे प्रेम करने वाले नेही जन यह गुणगान कर रहे हैं कि आप अपने स्नेही प्रिय श्याम की सभी इच्छाओं मनोरथों को पूर्ण कर रही हैं । श्री राधे की अपूर्व सुंदर छवि , जो प्रसन्नता, कृपा से परिपूर्ण है, की शोभा अवर्णनीय है । [2]
मुझमें इस अथाह, अपार शोभा की वर्णन करने की क्षमता कहाँ ? आपकी रुपमाधुरी का पान करते – करते मैं ध्यान में तदाकार भाव मे डूब जाता हूँ, समाधि अवस्था में पहुँच जाता हूँ । आपकी रुचि का ध्यान करते महाव्याकुल ही साधना में कई जन्म बिता दिये । [3]
श्री हरिदास के स्वामी श्याम कह रहे हैं – हे श्यामा ! बहुत जन्म आपकी रुचि अनुसार विनती की, आप की कृपा होने पर मुझे हृदय से आपने लगाया । आपकी कृपा दुर्लभ है परंतु आपने मुझपर कृपा की तथा मेरे लिए इसे सुलभ बनाया । [4]


(राग केदारौ)
फूलीं सब सखी देखि देखि। [1]
जच्छ किन्नर नागलोक देव स्त्रीं
रीझि रहीं भुव लेखि लेखि॥ [2]
कहत परस्पर नारि नारि सौं
यह सुन्दर्यता अव रेखि रेखि। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा ए कैसे हूँ
चितयैं परेखि रेखि॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (42)



रसिक सखीगण हरिदासी सखी को लाडिली-लाल को लाड़-लड़ाते, दुलराते निहार अति प्रसन्न हो रही हैं । [1]
नैन कमल, मुख कमल, चरण कमल की सेवा में बिहारीजी मगन हैं। प्यारी की सुंदरता सुगंध युक्त की किरण तीनों लोकों में बिजली चमक भांति कौंध रही है। यक्ष, नाग, किन्नर, देव आदि लोकों की देवियाँ जो प्रिया जी की रस के यश को सुनकर मोहित थीं, वे आज उसी शोभा का पृथ्वी पर अवलोकन कर रीझ रही हैं । [2]
प्यारी जी पिय के कंधे पर झूल रही हैं, पिय प्रिया जी की रूप माधुरी का पान करते नहीं अघाते, उनके अंगों से बिखरती इत्र आदि दिव्य सुगंधि सखीगणों के रंध्रों में प्रवेश कर अलौकिक आनंद प्रदान कर रही है। रसिक सनेही प्रिया जी की रस उपासना में व्यस्त हैं। भूतल यानी पृथ्वी भी प्रिया की छवि देख तृण की लेखनी बना लिखने लगी- ऐसा सौन्दर्य न देखा न सुना। [3]
 हरिदासी सखी अपनी स्वामिनी श्यामाजी से कह रही हैं- ये कैसे प्रियतम है जिनकी चाह, हौसला बढ़ता ही जाता है। आपकी कृपा को चित्त धारण किये हए हैं। आपकी कृपा से अंग से अंग मिल कर मानो हिंडोले झूल रहे हैं तो भी परीक्षा करने की सीमा समाप्त ही नहीं होती। [4]


(राग केदारौ)
पिय सौं तू जोई जोई करै सोई छाजै |
और सेंघ करै जो तेरी सोई लाजै || [1]
तू सुर ज्ञान सब अंग सखी री मान करत बेकाजै |
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम जिय में बसै
तू नित नित बिराजै || [2]

– श्री स्वामी हरिदास, केलीमाल (43)



श्री हरिदासी सखी कहती हैं हे प्यारी जू [राधे] आप जो जो भी करती हैं प्रियतम [श्री बिहारीजी] को वो सब सब प्रिय लगता है। हे प्यारी, आपकी कौन समानता कर सकता है, जिसने भी आपसे अपने आप की समानता करने की कोशिश की वह सब लज्जा को प्राप्त हुए हैं। [1]
आप प्रत्येक अंग से ज्ञानी एवं धनी हैं, आपका मान करना व्यर्थ है । श्री ललिता सखी [हरिदास जी] कहती हैं कि आप श्याम सुंदर के हृदय में नित्य ही विराजती हैं। [2]


(राग केदारौ)

सोई तौ बचन मोसौं मानि 

तैं मेरौ लाल मोह्यौ री साँवरौ । 

नव निकुंज सुख पुंज महल में

सुबस बसौ यह गाँवरौ॥ [1]

नव नव लाड़ लड़ाइ लाड़िली

नहिं नहिं यह ब्रज जाँवरौ।

श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी पै 

बारौंगी मालती भाँवरौ॥ [2]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलिमाल (44)


निकुंज महल में दिव्य युगल श्री राधा कृष्ण विराजमान हैं। उसी समय श्री राधा अपना प्रतिबिंब देखते हुए, अपने ही प्रतिबिंब से मधुर वचन कहने लगीं:

हे सुंदरी मेरी बात मानो। बताओ तुमने किन-किन गुणों से मेरे साँवरे को मोह लिया है। नव निकुंज वन जो समस्त सुखों का धाम है वहाँ तुमने निःसंकोच ही अपना निवास बना लिया है । [1]

इस निकुंज महल के नव नव प्रेम रस विलास के कारण ही वह [कृष्ण] कभी भी ब्रज [निकुंज वन को छोड़कर] नहीं जाता।

श्री हरिदास के स्वामी दिव्य युगल श्री श्यामा कुंजबिहारी जो मालती के पुष्प और भ्रमर [जो उस पुष्प पर आसक्त है] पर अपना सर्वस्व नयौछावर करती हूँ । [2]


(राग केदारौ)
जो कछु कहत लाड़िलौ लाड़िली जू सुनियै कान दै। [1]
जो जिय उपजै सो तिहारेई हित की कहत हौं आन दे ॥ [2]
मोहिं न पत्याहु तौ छाती टकटोरि देखौ पान दै। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी जाचक कौं दान दै ॥ [4]

-ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (45)



सखी के समझाने पर कि प्रिय के उर में और कोई नहीं विलस रही यह आप ही हैं। परन्तु लाड़िली मानी नहीं। तब लाल जी के कहने पर सखी कहने लगी- प्यारे जो कुछ भी कह रहा है उन्हें कान देकर सुनिए। [1]
पिय के हृदय में केवल आप ही बसती है। आप सावधान हो देखिए – आप के बिना और कोई नहीं प्यारी। प्रिय के उर में जो कुछ उदय होता है वह सब आप के हित में हैं। [2]
प्रिय आप की सौगन्ध खा कह रहे हैं- अगर आपको मेरे कथनों पर विश्वास नहीं तो मेरे हृदय वक्ष स्थल को स्पर्श कर टटोल कर देखें, किस सुन्दरी ने मुझे मोह लिया है, आप स्वत: ही स्वयं के प्रतिबिंब से मोहा गई है। [3]
हरिदासी सखी अपनी स्वामिनी से कह रही हैं – कुंजबिहारी आपके तनरूप कुंज में ‘नित्य विहार’ करते हैं। वे याचक बने आपसे रति रस केलिसुख एवं अधर पान का दान माँग रहे हैं। आप नित्य दानी कृपालु तथा वे नित्य याचिका हैं। [4]


(राग केदारौ)

प्यारी जू आगै चलि आगैं चलि

गहवर बन भीतर जहाँ बोलै कोइल री ।

अति ही बिचित्र फूल पत्रनि की सेज्या रची 

रुचिर सँवारी तहाँ तूब सोइल री ।। [1]

छिन छिन पल पल तेरीऐ कहानी तुव मग जोइल री ।

श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत छबीलौ

काम रस भोलइ री ।। [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (46)


हरिदासी [ललिता] सखी कहती हैं: श्री प्यारी ज़ू [राधा रानी] आगे आगे चलिए, गहवर वन के भीतर और भीतर जहाँ कोयल गा रही है । वहाँ अति ही विचित्र फूलों एवं पत्तों से बनी सेज रची हुई है, वहाँ आप आराम कीजिए। [1] 

हर क्षण हर पल श्री बाँके बिहारी केवल आपकी ही चर्चा एवं आपके ही गुण गाते हैं एवं आपकी ही प्रतीक्षा करते हैं। स्वामी हरिदास जी महाराज कहते हैं कि हे सखी, छबीले श्याम सुंदर काम रस में भीग रहे हैं। [2]


(राग केदारौ)
प्यारी अब सोइ गई ।
जयौं जयौं जगावत त्यौं त्यौं नहिं जागत
प्रेम रस पान करि भोई गई ।। [1]
जागत होइ तौ जगाउँ प्यारी तातैंब परम सचु
रस ही रसिक रस बोई गई ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
उठिकैं गरैं लगाई नवल प्रीति सौं नोइ गई ।। [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (47)



श्री हरिदासी [ललिता] सखी कहती हैं:  हे प्यारे, प्यारी जू [राधिका] अब सो गयी हैं । जैसे जैसे मैं इन्हें जगाने की कोशिश करती हूँ, वैसे वैसे यह उतना ही नहीं जाग रही, यह प्रेम रस में संलग्न हैं । [1] 
हे प्यारे, अगर वो जाग रही होती, तो मैं उन्हें जगा देती । उन्हीं की कृपा से साँचा रस [परम एवं सर्वोच्च रस] रसिकों [सहचरियाँ एवं प्रियतम] को प्राप्त हुआ है, अर्थात् उन्हीं [स्वामिनी जू] ने ही तो इस अद्बुत रस का बीज बोया है । श्री हरिदास जी कहते हैं कि हे प्यारे [कुंज बिहारी] श्यामा जू को उठ के गले से लगा लो, जिससे श्री प्यारी जू नवल प्रीति [सुरत विहार] में डूब गयी । [2]


(राग केदारौ)
डोल झूलत दुलहिनि दूलहु। [1]
उड़त अबीर कुमकुमा छिरकत
खेल परस्पर सूलहु ॥ [2]
बाजत ताल रबाब और बहु तरनि तनया कूलहु। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी कौ
अनतब नाहिंने फूलहु ॥ [4]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (48)



सखी सखी से कह रही है – दोनों प्रिया प्रियतम नये-दुल्हा दुलहिन, पुष्पों से शोभित निकुंज प्रांगण में नवीन भावों के श्रृंगार कर झूला झूल रहे हैं। [1]
होली का महोत्सव, चाह रूपी प्यारे का अबीर उड़कर प्यार से लिपट रहा है एवं प्यारी जी के कुमकुम का रंग प्यारे पर छिड़काव कर रहा है। यह होली का खेल अति रसमय है एवं दोनों को हँसने हँसाने में सहायक है। [2]
डोल झूलने के क्रम में अंग अंग स्पर्श से बाजे बज रहे हैं। आभूषणों के आपस में टकराने से मधुर झंकार की ध्वनि उठ रही है। यमुना जी के तट पर दोनों के परम सुंदर तन परस्पर लिपटे हुए सुखी को आनंदित कर रहे हैं। [3]
सखियाँ आपस में वार्तालाप कर रही हैं कि श्यामा कुंजबिहारी का यह सुख और कहीं उपलब्ध नहीं। हे सखी तुम यह सुख दरस दरस कर फूल रही हो, प्रसन्न हो रही हो और ये दोनों भी परस्पर फूल रहे हैं, खेल रहे हैं, कलोल कर रहे हैं। [4]


(राग केदारौ)
प्यारी पहिरैं चुनरी।
तैसोई लहँगा बन्यौ सिलसिलौ
पूरनमासी की सी पूनरी ॥ [1]
हौं जु कहति चलिये मनमोहन मानैंगी नहिं घूनरी । [2]
श्रीहरिदास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी
चरन लपटाने दुहूँन री॥ [3]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (49)



प्रिया प्रियतम निकुंज में विराज रहे हैं। प्यारी की अंग अंग की संदरता अद्वितीय है। आनंद रस बरस रहा है। प्यारे तो उन पर न्योछावर हो रहे हैं किंतु प्यारी तो बोल ही नहीं रही। प्यारे जी समझ गये वे मान में हैं।
सखी प्यारी की रुचि समझ प्यारे से बोली- हे प्यारे, प्यारी जी चुनरी ओढ़ी हैं, कैसी? गोरे तन पर लाल सुख रंग की चुनरी है, मन मोह रही है। लाल रंग हरि के अनुराग का प्रतीक है; प्यारी के गोरे रंग की झलक आनन्द का। ऐसी सुंदर चुनर है, तुम मान मन समझो। लहंगा भी चुनरी रंग का प्यारी जी ने पहन रखा है। उनकी अंग-अंग की झलक मानो लाल के मन की ललक हो। लाल जी प्यारी के मुख को निरख-निरख प्रसन्न हो रहे हैं। चिकने लहंगे के ऊपर भड़कीली कंचुकी श्याम रंग की शोभा पा रही है, मानो पूर्णमासी का चंद्रमा श्याम रंग बादलों से प्रकट हो गया हो। [1]
सखी कह रही है- कुंजबिहारी प्यारी जी तो प्रसन्न दीख रही हैं। मनमोहन! तुम तो इनके मन को मोहने वाले हो। जो कुछ कहोगे, वे अवश्य मानेंगी। वे चुप्पी साधे हैं, अपने मन का भाव गुप्त रखती हैं, परंतु वे रस मगन हैं, तुम सकुचाओ मत। [2]
हरिदासजी की स्वामिनी श्यामा जी के दोनों चरण कमलों से हरि लिपट गये। कहने लगे -मुझे कुछ सुहाता नहीं। मेरे लिए बस आपही सर्वस्व हैं।  [3]


(राग केदारौ)
बनी री तेरे चारि चारि चूरी करनि ।
कंठसिरी दुलरी हीरनि की नासा मुक्ता ढरनि ॥ [1]
तैसौई नैननि कजरा फबि रह्यौ निरखि काम डरनि ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रीझि रीझि पग परनि ॥ [2]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (50)



श्री लाल जी [कृष्ण] श्री लाडिलीजी [राधा] से बोले- हे प्यारीजी, आपके सुकोमल करों में चार-चार चूड़ियाँ अत्यंत शोभायमान हैं ।आपके कंठ में रत्नों हीरे से जटित सुंदर आभूषण, एवं धारण किया हुआ हार, एवं नासा में मुक्ता (मोती) ऐसी अद्बुत शोभा पा रही है जो आपके मीठे बोल बोलने से हिल-हिल कर मन का हरण कर रही है । [1]

इसी प्रकार आपके कमल नयनों में काजल शोभा पा रहा है जिसे देख साक्षात कामदेव भी भयभीत हो है। ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज की स्वामिनी श्री श्यामा जू के इस अद्बुत रूप एवं छवि का दर्शन कर रीझ रीझ कर श्री कुंजबिहारी श्री प्यारी के चरणों में गिर पड़ते हैं। [2]


(राग केदारौ व सारंग)
सुनि धुनि मुरली बन बाजै हरि रास रच्यौ ।
कुंज कुंज द्रुम बेलि प्रफुल्लित
मंडल कंचन मनिन खच्यौ ॥ [1]
नृत्तत जुगलकिसोर जुवति जन
मन मिलि राग केदारौ मच्यौ ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी

नीकै री आजु प्यारौ लाल नच्यौ ॥ [2]
– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (52)

अरी सखी! कुंजों में बज रही मुरली की धुन सुन, श्री हरि ने रास रचाया है । प्रत्येक कुंज में वृक्ष एवं लताएँ प्रफुल्लित हैं एवं रास मण्डल सोने एवं मणियों से जटित है । [1]

श्री युगल किशोर आज सहचरियों के संग सुंदर नित्य कर रहे हैं एवं सुंदर राग केदारौ से पूर्ण वातावरण गूंज उठा है । स्वामी श्री हरिदास के स्वामी श्री श्यामा कुंज बिहारी ने आज सुंदर एवं उत्कृष्ट नृत्य दिखाया है ।  [2]


(राग कल्याण)

जहाँ जहाँ चरन परत प्यारी जू तेरे 

तहाँ तहाँ मन मेरौ करत फिरत परछाँहीं | [1]

बहुत मूरति मेरी चॅवर ढुरावति 

कोऊ बीरी खवावती एकब आरसी लै जाहीं || [2]

और सेवा बहुत भाँतिन की जैसीयै कहैं कोऊ

तैसीयै करौं ज्यौं रुचि जानौं जाहीं | [3]

श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कौं

भलैं मनावत दाइ उपाहीं || [4]

– श्री हरिदास जी (ललिता अवतार), केलिमाल (53)

श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं कि जहाँ भी आपके कमल स्वरूप चरण पड़ते हैं, मेरा मन मानो परछाईं की तरह उन्ही चरणों के पीछे फिरता है । [1] 

मैं अनेक रूप धारण करके आपकी सेवा करता हूँ, कभी मैं आपको चॅवर ढुराता हूँ, कभी आपको पान खिलाता हूँ और कभी आरसी [शीशा] दिखाता हूँ।  [2]

और भी अनेक प्रकार से आपकी सेवा करता हूँ, जैसा भी कोई कहे वैसा ही मैं आपकी सेवा करूँ, हे प्यारी, मैं आपकी आज्ञा मानकर [रूचि में रूचि रखकर] ही आपकी सेवा नित्य करता रहूँ  । [3]

ललिता अवतार श्री हरिदास जी महाराज कहते हैं कि श्री कृष्ण  श्यामा जू को भली प्रकार से मनाना एवं लाड़ लड़ाना जानते हैं, जब भी उन्हें अवसर मिलता है ।  [4]


(राग कल्याण)
यह कौन बात जु अबही और अबही और अबही औरै ।
देव नारि नाग नारि और नारि ते न होइँ और की औरै ॥ [1]
पाछै न सुनी अब हूँ आगैं हूँ न ह्वै है
यह गति अद्भुत रूप की और की औरै । [2]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी
या रस ही बस भयै यह भई और की औरै ॥ [3]

– ललिता अवतार श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (54)



श्री हरिदासी सखी मनोहर शैय्या पर विराजित लाल लाड़िली से लाड़ लड़ा रही हैं। श्री कुंजबिहारी कहते हैं हे प्यारी जी, यह कैसा अद्भुत आपका रूप लावण्य है जो क्षण क्षण भिन्न भिन्न छटा बिखेर रहा है । बिहारी जी कह रहे हैं, ऐसी छवि यहीं पर है और कहीं नहीं, देव लोक, नाग लोक तक अन्य युवतियों, नारियों की रूप माधुरी यथावत् रहती हैं, परन्तु आपको छवि प्रति क्षण नित नवीन और ही और अद्भुत रूप धारण करती है। [1]

ऐसा अद्भुत रूप न तो पहले कहीं सुना है, न अभी और ना ही आगे कभी ऐसा और कहीं होगा प्यारी जी, जैसा अद्भुत रूप आपका है (जिस गति से आपका रूप सौंदर्य लावण्य इत्यादि बढ़ता है) । आपकी रूप माधुर्य की यह गति अद्भुत है। [2]

श्री स्वामी हरिदास जी महाराज [ललिता सखी] कहते हैं कि श्री कुंज बिहारी नित्य ही इस अद्भुत रस के आधीन रहते हैं जो नित्य प्रति बढ़ता है, अर्थात् प्यारी जू का रूप माधुर्य जो हर क्षण नव नवायमान एवं अलग प्रतीत होता है, इस रस के वश श्री श्याम सुंदर रहते हैं । [3]


(राग कल्यान)
कस्तूरी कौ मर्दन अंग में कियैं मुरली धरैं पीताम्बर ओढ़ैं कहति राधे हौं ही स्याम। [1]
किसोर कुमकुम कौ सिंगार कियैं सारी चुरी खुभी नेत्रनि दियैं स्याम॥ [2]
बाँह गहि लै चलै चलियै जू कुंज में चितै मुख हँसें मानौं एई स्याम। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम छाती सौं छाती लगायें गौर स्याम॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलिमाल (56)



कुंजमहल में हरिदास जी पिय प्यारी को नये-नये लाड़ लड़ा रही हैं। इस सुख आनंद की चर्चा सखीजन आपस में कह रही हैं।
सखी कहती है- राधे जी ने श्री श्याम का श्रृंगार किया है। गौर वर्ण पर कस्तूरी का मर्दन कर, पीताम्बर धारण किया है तथा मुरली मुख पर धरी हैं। राधे जी कहती हैं मैं तो पिय, श्याम बन गई। [1]
प्यारेजी ने साड़ी पहनी है। हाथों में चार चार चूड़ियाँ शोभित हो रही है तथा नयनों में श्याम-काजल लगा, कुमकुम का शृंगार किया है। इस प्रकार दोनों के वेष पलट गये हैं। [2]
प्रिय रूप प्रिया की प्यारी, रूप प्रिय ने बाँह पकड़ ली, कहा – चलिए कुंजों में प्यारीजी इस भांति हँसी कर रही हैं जैसे पिय हों, भौहें, नैन, बातें सभी प्रिय की भांति हैं। [3]
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा जी पिय बनी प्यारी बने श्याम को हृदय से हृदय लगा आनंदरस में डूबे हैं। लाल जी निहाल हो प्रेम रस में पगे हैं। प्रियाजी पिय के प्रेम की पोषक तथा महा आनन्द प्रदान करने वाली महासुख राशि की पुंज हैं। [4]


(राग कल्याण)
प्यारी तेरौ बदन चंद देखैं
मेरे हृदै सरोवर तें कमोदिनी फूली। [1]
मन के मनोरथ तरंग अपार सुन्दर्यता
तहाँ गति भूली॥ [2]
तेरौ कोप ग्राह ग्रसैं लियैं जात छुड़ायौ न छूटत
रह्यौ बुधि बल झूली। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा चरन बंसी सौं गहि
काढ़ि रहे लटपटाइ गहि भुजमूली॥ [4]

– श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (57)



लालजी (श्री कृष्ण) श्री राधा से कहते हैं – हे प्यारी जू, आपके चन्द्र वदन को देखकर मेरे हृदय रूपी सरोवर में चाह रूपी कमल प्रफुल्लित हुई है। [1]

लालजी के मन में अनेक प्रकार के मनोरथ की अपार तरंगें तरंगित हो रही हैं। श्री राधा की रूप माधुरी के अपार सौंदर्य के दर्शन कर लालजी का मन भी अपनी गति भूल गया है। [2]

श्री कृष्ण श्री राधा से कहते हैं – हे प्यारी जू, आपका मान [कोप] ग्राह (मगरमच्छ) बनकर मेरे ह्रदय सरोवर में खिले प्रेम रुपी कमल को ग्रस रहा है और खींचते ले जा रहा है, प्रयास करने पर भी मैं आपका मान छुड़ा नहीं पा रहा हूँ, मेरी बुद्धि और बल परास्त हो गए हैं तथा दुःख के सागर में झूलने लगे हैं। [3]

श्री हरिदासजी की स्वामिनी श्री श्यामा जू लालजी को दुख समुद्र से अपने चरण रूपी बंसी (मछली पकड़ने की छड़ी) में फँसा कर उबार लेती हैं। दोनों प्रिया प्रियतम प्रेम समुद्र में कंधे से कंधे मिला झूलने लगते हैं। [4]


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