Sampuran Shri Radha Sudha Nidhi Ji Arth Sahit 1 To 270 : श्री हित राधा सुधा निधि जी अर्थ सहित 1 से 270 श्लोक

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Shrijidham.com और @shrijidham Youtube Channel आज आपको श्री हित राधा सुधा निधि जी अर्थ सहित 1 से 270 श्लोक(Sampuran Shri Radha Sudha Nidhi Ji Arth Sahit 1 To 270) के बारे में जानकारी देगा जिसे पढ़ कर या सीख कर राधावल्लभ श्री हरिवंश नाम कीर्तन कर राधावल्लभ तक का मार्ग आसान होगा और उनकी प्राप्ति होगी।

हमारा एकमात्र उद्देश्य आपको पवित्र भूमि के हर हिस्से का आनंद लेने देना है, और ऐसा करने में, हम और हमारी टीम आपको वृंदावन के सर्वश्रेष्ठ के बारे में सूचित करने के लिए तैयार हैं।

Shri Radha Sudha Nidhi Ji Arth Sahit

Table of Contents

Shri Radha Sudha Nidhi Ji shlok 1 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 1

जिनके दूकूल के उड़ने से खेलन रुचि ले वह धन्य पवन।जो नहीं प्राप्य योगीन्द्रों को, जो है सन्तत पावन कन-कन ॥ मधुसूदन हैं कृतकृत्य कहाँ, वृषभानु नन्दिनी भव्य जहाँ। हो गति दुरूह का छोर वहाँ, उस ओर हमारा अमित नमन।।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 2 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 2

जो ब्रह्म शिवादिक से भी बढ़कर अतिशोभादि दुरूह कमलपद। अद्भुत परम पराग विभव की सारभूत अति कृपा दृष्टि नद ॥ उन श्री श्री वृषभानु नन्दिनी की महिमा जो अकथ कथन। नमस्कार हो पुनः पुनः अति विनय विनम्रित पुनः नमन ॥


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 3 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 3

जो ब्रह्म रुद्र शुक नारद भीष्म से भी दिये न दिखलाई। शक्त्यनन्त उस परम पुरुष को वशीकरण वह कर पाई।। ऐसी उस सम्पन्न शक्ति को सहसा आकर्षित करती जो। उस राधा पद रज का सुमिरन, सन्तन कर भव दुख हरती जो।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 4 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 4

मनः प्राण से नित उदार ऐसी गोपी गण गोकुल की। मोर पंख धारी के सब गुण-सहित प्राप्य पद आकुल की। भाव चाव भावोत्सव हित वे कामधेनु सी नित हुलसी। भक्तों से ध्यायित नित-नित वह स्वामिनि पदरज मन विलसी।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 3 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 5

जो सदा अपने अङ्ग-जो सदा अपने अङ्ग-सङ्ग रूप अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों स मूर्च्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो। अलौकिक आनन्द-रस-सार अमृत की लहरी-समूहों का अभिसिञ्चन कर – करके कोटि-कोटि कन्दर्प-शरों से मूच्छित नन्दनन्दन श्रीलालजी को जीवन-दान करती रहती हैं, उन नन्दसूनु-सञ्जीवनी किन्हीं (अनिर्वचनीय) निकुञ्जदेवी की जय हो, जय हो।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 6 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 6

जिस आनन-कमल से प्रतिक्षण महामोहन माधुर्य के विविध अङ्गों की भङ्गिमा युक्त सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का लावण्य चमत्कृत होता रहता है और जो माधुर्य के अङ्गों की चातुरी का उत्पत्ति स्थान है, वही समस्त रस-सार-सिन्धु श्रीराधानन हमारे सम्मुख कब आविर्भूत होगा ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 7 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 7

निश्चय ही, जिनकी दासियों से परम-पुरुष शिखण्ड-मौलि श्रीश्यामसुन्दर नित्य-निरन्तर कातर-वाणी द्वारा भूरि-भूरि प्रार्थना करते रहते हैं, क्या मैं कभी उन रसनिधि श्रीवृषभानुजा के केलि-कुञ्ज-भवन के प्राङ्गण की सोहनी देने वाली हो सकूँगी ? (जिसमें प्रवेश करने के लिये श्रीलालजी को भी सखियों से प्रार्थना करनी पड़ती है)


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 8 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 8

हे मेरे मन ! तू समस्त महच्चेष्टाओं ( महत् वृन्दों) को दूर से ही छोड़कर प्रीति-पूर्वक श्रीवृन्दाटवी का अनुसरण कर । जहाँ ‘श्रीराधा’ नामक एक दिव्य निधि विराजमान है । जो सज्जनों को भव से उद्धार करने वाले भाव रूप सुधा-रस का प्रवाह है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 9 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 9

हे श्रीराधिके ! कोई चतुर-शिरोमणि किशोर आपके श्रीचरणों में बारम्बार गिरकर आपसे परिरम्भण सुखोत्सव की याचना कर रहे हों और आप अपनी भ्रूलताओं को विभङ्गित कर-करके परम रसमय वचन ‘नहीं नहीं’ ऐसा कह रही हों । हे अति कौतुक-निधि ! मैं आपके इन शब्दों को कब सुनूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 10 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 10

जिनके पाद-पद्म-नख रूप चन्द्रमणि की किसी अनिर्वचनीय छटा का प्रकाश गोप-वधुओं में देखा जाता है, वही परिपूर्ण अनुराग-रस-समुद्र की सार-मूत्ति श्रीराधिका कभी मुझ पर भी कृपा करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 11 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 11

जिनके नेत्र प्रणय-रस से चञ्चल हो रहे हैं और जिनके अङ्ग उत्फुल्लमान् रस-सागर की तरङ्गों के समान हैं, उन श्रीवृन्दाटवी नवनिकुन्ज भवन की अधिष्ठात्री देवी की पवित्र दृष्टि मुझ पर कब होगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 12 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 12

हे वृन्दावनेश्वरि ! आपके चरण-कमल एकमात्र प्रेमामृत-मकरन्द रस-राशि से परिपूर्ण हैं, जिन्हें हृदय में धारण करते ही मधुपति श्रीलालजी का तीक्ष्ण स्मरताप (काम-ताप) निर्वारित हो जाता है । मैं आपके उन्हीं परम शीतल चरणारविन्दों का आश्रय ग्रहण करती हूँ, मेरे लिये उनके सिबाय और कोई गति नहीं है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 13 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 13

हे मेरे मन ! तू श्रीराधा-करों से स्पर्श की हुई पल्लव-वल्लरी से मण्डित, श्रीराधा पदाङ्गों से शोभित, मनोहर स्थल-युक्त एवं श्रीराधा यशोगान से मुखरित मत्त खगावली-सेवित श्रीराधा कुञ्ज-केलि कानन श्री वृन्दावन में रमणकर !


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 14 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 14

जब वे मुझसे कहेंगी-“अरी सखि ! श्रीकृष्णामृत^१’ अवगाहन करने के लिए चल” । तब मैं हँसकर कहूंगी-“हे सखि ! तब तक धैर्य रखो जब तक राशि नहीं  आ जाती।” (क्योंकि कृष्णामृत-अवगाहन तो रात्रि में ही अधिक उपयुक्त है ?) उस समय मेरे हास-मय वचनों से रसदायक केलि-समूह का एक अनुपम आनन्द उत्पन्न होगा । मैं कब श्रीवृषभानुनन्दिनी से इस रसमय सम्मान की अधिकारिणी होऊँगी ?

१-श्रीकृष्णामृत शब्द यहाँ क्लिष्ट है । ‘कृष्णा’ यमुना का एक नाम है । श्रीप्रियाजी ने सभी से यमुना-स्मान की ही बात कही यो; किन्तु सखी ने परिहास से आनन्व-पृद्धि के लिए कृष्णामृत पद का अर्थ किया ‘श्रीकृष्ण का एकान्त मिलनरस’ । जिसकी प्राप्ति रात्रि को ही सम्भव बताई, यही हास विशेष है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 15 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 15

अपने प्रियतम रसिक-पुरन्दर श्रीलालजी के मुखचन्द्र मण्डल को दूर से ही देखकर जिन्होंने लज्जा से भरकर अपनी दृष्टि को अपने ही चरणों की अंगुलियों में निहित कर दिया है और फिर जो सलज्ज गति से(निकुञ्ज-भवन की ओर) चल पड़ी हैं, जिससे चरण-नूपुर झंकृत हो उठे हैं। हाय ! वे अभिराम-चरिता श्रीराधा क्या कभी मुझे दर्शन देंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 16 |श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 16

हे श्रीराधे ! तुमने अपने पियतम रसिक नागर श्रीलालजी के साथ कुब्ज-भवन में आनन्द-विहार करते हुए मोद में ही सारी रात्रि जागकर व्यतीत कर दी हो तब प्रात:काल मैं तुम्हें अच्छी तरह से स्नान कराके मधुर-मधुर भोजन कराऊँ और सुखद शय्या पर पौढ़ाकर अपने कोमल करों से तुम्हारे ललित चरणों का संवाहन करू। मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 17 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 17

जो विदग्धता की सिन्धु, अनुराग रस को एकमात्र सिन्धु, वात्सल्यभाव की सिन्धु अत्यन्त घनीभूत कृपा की एकमात्र सिन्धु, लावण्य की सिन्धु और छवि रूप अमृत की अपार सिन्धु हैं । वे केलि-सिन्धु श्रीराधा मेरे हृदय में स्फुरित हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 18 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 18

जो अपने प्रियतम श्रीलालजी को देखते ही चम्पकलता के समान अङ्ग-अङ्ग से चमत्कृत हो उठती हैं, और कभी मन्द-मन्द वेणु-ध्वनि को सुनकर जिनके समस्त अङ्ग विह्वल हो उठते हैं । अहो ! वे श्रीवृषभानुनन्दिनी मेरे द्वारा गाये हुए अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुणों को श्रवणकर क्या कभी मुझे प्रीतिपूर्वक आलिङ्गन करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 19 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 19

हे श्रीराधिके ! हे सुरत-केलि-रञ्जित नितम्ब-भागे ! अहा ! आपका यह काञ्ची-कलाप क्या है मानो कल हंसों का कल-कल अनुलाप है, और चरण-कमलों के नूपुरों की मन्द-मन्द झनकार ही मानों मतवाले भ्रमरों का गुञ्जन है । स्वामिनि ! आप अपने इसी मधुर-रस की छटा से मुझे शीतल कर दीजिए।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 20 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 20

हे दिव्यकेलि-तरङ्गमाले! हे शोभमान् वदनारविन्दे ! हे श्रीश्यामसुन्दर-सुधा-सागर-सङ्गमार्थ तीव्र वेगवती ! हे रुचिर नाभिरूप गम्भीर भंवर से शोभायमान् सुरत-सलिते ! ( मन्दाकिनि रूपे ! ) हे श्रीराधिके ! आप मुझे अपना सामीप्य प्रदान कीजिये।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 21 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 21

जो अपने आश्रित-जनों पर सत्प्रेम ( महाप्रेम ) समुद्र के मधुर मकरन्द-रस की प्रबल धारा अनवरत रूप से चारों ओर से बरसाते रहते हैं तथा जो गोविन्द के जीवन-धन हैं, हे श्रीराधिके ! आपके उन चरणकमलों को मैं कब अपने सिर पर धारण करूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 22 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 22

हे राधे ! आप काम-केलि की उत्कण्ठा से भरकर सङ्केत-कुण्ज में.पधार रही हों और मैं शीतलचन्दन, गन्ध, परिमल, पुष्पमाला आदि दिव्य और मृदु सामग्री लेकर आपको सङ्केत कुञ्ज का लक्ष्य कराती हुई मन्दमन्द कुनञ्जर-गति से आपका अनुगमन करूं, ऐसी कृपा कब करोगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 23 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°23

हे श्रीराधिके ! आप स्नान करने के लिए कलिन्द-तमया यमुना के किसी निर्जन घाट पर पधारें और मैं आपके अनङ्ग-जीवनदाता श्रीअङ्गों का उद्वर्तन (उबटन) करूँ’, उस समय (तट के) उच्च कदम्ब पर स्थित नवनागर शिरोमणि श्रीलालजी को आपकी ओर निरखते हुए मैं कब देखूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 24 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 24

हे श्रीराधिके ! आपका यह श्रीमुख पवित्र प्रेम-राशि-सरोवर का.विकसित सरोज है अथवा आपके अपने जनों को आनन्द देने वाला अमृत है किंबा रससिंधु का विवर्द्धन करने वाला पूर्णचन्द्र ? अहा ! जिस मुख-कमल के आस-पास काली-काली धुंघराली अलकावली मतवाले भृङ्ग-समूहों के समान लटक रही है, कब आपके इस मनोहर मुख-कमल का दर्शन करूँगी।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 25 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 25

एक सर्व सारातिसार स्वरूप है, जो लावण्य का सार, रस का सार और समस्त सुखों का एक मात्र सार है; वही दयालुता के सार से युक्त मधुर छवि के रूप का भी सार है। जो चातुर्य का सार एवं रति-केलिविलास का भी सार है वही राधा नामक तत्व सम्पूर्ण सारों का सार है, इसी में मेरा मन सदा रमा करे।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 26 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 26

जो आश्रित जनों के लिए समस्त फल-दाता चिन्तामणि हैं, जो व्रजनव – तरुणियों की चूङ़ामणि और वृषभानु की कुलमणि हैं जो श्रीश्यामसुन्दर के काम को शान्त करने वाली श्रेष्ठ मणि हैं । वही निकुञ्ज-भवन की भूषण-रूपा मणि तथा मेरे हृदय-सम्पुट की भी दिव्य मणि (श्रीराधा) हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 27 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 27

जिनका स्वभाब बड़ा ही कोमल है और जो सङ्कल्पाधिक काम-पूरक कल्पलता के निभृत-निकुञ्ज में विराजती हुई अद्भुत कृपा-रस-पुक्ष का ही प्रकाशन करती रहती हैं। हे मेरे साधु मन ! तू उसी राधा नामक प्रेमामृत के अगाध और अबाध (अमर्यादित) अम्बुधि का शीघ्र आश्रय कर ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 28 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 28

श्रीप्रियाजी अपने प्रियतम श्रीलालजी के साथ कुछ मधुर मधुर बातें कर रही हैं, जिससे उनके लाल-लाल ओठों से सौन्दर्य-राशि निकलनिकल कर चारों ओर फैल रही है । अहा ! जिनके विशाल भाल पर सिन्दूर-रञ्जित मोतियों की पंक्ति शोभायमान है और दन्त पंक्ति कुन्द-कलियों को भी लज्जित कर रही है। वही धन्य हैं जो ऐसी श्रीप्रियाजी के भावनापरायण हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 29 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 29

जिनकी छवि पीत और अरुणिमा-मिश्रित स्वर्ण के समान है, आभा.अनन्त विद्युन्माला की दीप्ति के समान है । जिनकी सुन्दर मूर्त्ति प्रौढ अनुराग में विह्वल है और जो ब्रजराज एवं ब्रजरानी के लिए गोविन्द के समान प्रेमपात्र हैं। उन श्रीराधा को मैं अपने मन में धारण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 30 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 30

स्वामिनि ! मैं नवीन-नवीन मयूर-चन्द्रिकाओं से निर्मित सुन्दर मुकुट एवं गुञ्जा-रचित हार आपके निकट पहुँचाऊँ। वृन्दावन नव-निकुञ्जगृह की अधिदेवी हे श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी दासी कब होऊँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 31 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 31

स्वामिनि ! मैंने केवल यही आशा धारण कर रखी है कि उन-उन संकेत-कुजों में नवीन-नवीन पल्लवों की सुन्दर शय्या बिछाऊँ और वहाँ पर श्यामचन्द्र (श्रीलालजी) से मिलन कराने के लिए तुम्हें छिपाकर ले जाऊँ। तब आप मेरी इस सेवा से प्रसन्न हो उठें। हे श्रीराधिके ! आप तो मुझ पर अपने इतने ही कृपा-कटाक्ष का विधान कीजिए।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 32 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 32

मैंने अपने स्वजन-सम्बन्धी वर्ग और कोटि-कोटि सम्पत्तियों के सुख को दूर से ही त्याग दिया है तथा (परमार्थ-सम्बन्धी) समस्त श्रेष्ठ साधनों में भी मेरी चिर निराशा हो चुकी है। अब तो मैं स्वभावतया अद्भुत सुख की धारा का हो वर्षण करने वाले श्रीराधिका-चरण-रेणु का स्मरण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 33 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 33

वृन्दाटवी प्रकट मन्मथ कोटि मूर्त्ते कस्यापि गोकुलकिशोर निशाकरस्य ।

सर्वस्व सम्पुटभिव स्तनशातकुम्भ कुम्भद्वयं स्मर मनो वृषभानुपुत्र्याः ॥33।।

हे मेरे मन ! तू श्रीवृषभानुनन्दिनी के स्वर्ण-कलशों के समान युगल स्तनों का स्मरण कर । जो वृन्दावन में प्रकट रूप से विराजमान कोटि कन्दर्प-मूर्त्ति किन्हीं गोकुल-किशोरचन्द्र के सर्वस्व-सम्पुट के समान हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 34 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 34

घनीभूत प्रेम-रस-सार-सरोवर का एक सरोज मानो मुखचन्द्र का प्रकाश पाकर दो रूपों में मुकुलित हो गया है और जो स्वानन्द-अमृत के मकरन्द का सघन स्वरूप है, मैं श्रीवृषभानुनन्दिनी के उस नवीन स्तन-युग्म का स्मरण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 35 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 35

श्रीराधिके ! केलि-सरोवर की कनक-पङ्कज-कली के समान अथवा आपके अपने ही आनन्द से परिपूर्ण रसकरूपतरु के फल के समान त्रिभुवनमोहन श्रीमोहनलाल का भी मोहन करने वाले आपके नवीन स्तन-मण्डल कों नमस्कार है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 36 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 36

हे श्रीराधिके ! मैंने तो केवल यही आशा धारण कर रखी है और आप भी मुझ पर अपनी कृपा-दृष्टि का ऐसा ही विधान करें कि मैं आपके युगल-कुच-मण्डल और कपोलों पर  (चित्र-विचित्र) पत्रावली-रचना करू । मल्लिका के नवीन-नवीन पुष्पों को गूंथकर विचित्र रीति से आपका कबरीबन्धन करू’ और आपके सुन्दर सुकोमल अङ्गों में तदनुरूप आभरप आभूषित करूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 37 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 37

जो दिवस-काल में “हे श्याम ! हा सुन्दर वर ! हा मनोहर ! हे कन्दर्प-कोटि-ललित ! अहो चतुर शिरोमणि !” ऐसे उत्कण्ठा-युक्त शब्दों से बारम्बार गान करती हैं । वे आकुल-नयनी श्रीराधिका मुझ पर कब प्रसन्न होंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 38 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 38

जिनके नयन-वाणों की चोट से श्रीव्रजराजकुमार की मुरली हाथ से छूट गिरती है। सिर का मोर-मुकुट खिसक चलता है और पीताम्बर भी स्थान-च्युत हो जाता है; यहाँ तक कि वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं। अहा ! क्या मैं कभी ऐसी श्रीराधिका की प्रेम-पूर्वक परिचर्या करूँगी!


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 39 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 39

जो अपार रस – सार की विलास-मूर्त्ति, आनन्द की मूल एवं परमाद्भुत सुख की सम्पत्ति हैं एवं जिनकी गति ब्रह्मादि को भी दुर्गम है। उन श्रीवृषभानुनन्दिनीजू का कैङ्कर्य्य ही मुझे जन्म-जन्मान्तरों में प्राप्त होता रहे।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 40 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 40

एक रहस्यमयी परम ज्योति है । जो परात्पर परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण को भी अपने आप में रमा लेती है। जिसकी कान्ति विद्युल्लता के समान देदीप्यमान् है और जो पूर्णतम अनुराग-रस की मूर्ति है । अहो ! कृपापूर्वक ही वह श्रीवृषभानु-भवन में प्रादुर्भूत हुई है। मेरी तो यही अभिलाषा है कि उसी की दासी हो रहूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 41 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 41

जो प्रेम से उल्लसित रम-विलास का विकास बीज है एवं गोविन्द के अतृप्त लोचन-चकोरों के लिये पेय स्वरूप है, उसी अद्भुत रसामृतचन्द्रिका-धारा-सिञ्चन कारी श्रीराधिका-मुख-चन्द्र का मैं स्मरण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 42 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 42

मैं, रहस्य निकुन्ज गृह में कोमल-पल्लव-रचित रसिकेन्द्र-शय्या पर नवीन सङ्गम के भय एवं लज्जा से भरी हुई श्रीवृषभानु-किशोरी को करकमल पकड़कर अत्यन्त आग्रह के साथ शयन-गृह में कभी ले जाऊँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 43 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 43

 अधीश्वरि ! जब आप रस से उम्मद होकर श्रीलालजी के समीप पधारने लगें, उस समय मैं सुन्दर सुगन्धित मालाएं और नव-कर्पूर लवङ्गयुक्त ताम्बूल-सम्पुट (डवा) ले कर चलूं । हे श्रीराधिके ! कृपा करके आप.मुझे अपनी ऐसी ही अनुचरी बनाइये ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 44 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 44

हे श्रीराधिके ! चारु, वर्तुल, मुकुलित स्तन-द्वय द्वारा लोभनीय, नितम्ब विशिष्ट युक्त रस-स्वरूप श्रीकृष्ण के नित्य सेवनादि गुणों द्वारा बर्द्धमान् एवं मोहन के भी चित्त का हरण करने वाला आपका कैशोर जययुक्त हो रहा है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 45 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 45

अनेकों अनङ्गों की तरङ्गमाला उच्छलित हो-होकर जिनके श्रीवपु को आन्दोलित कर रही है. ऐसे व्रजनागर श्रीलालजी के साथ आप संलाप करती हों । जिस संलाप के अक्षर-अक्षर में अपार रसामृत-सिन्धु झरता रहता है । हे स्वामिनि ! मैं समीप ही स्थित होकर आपके उस महामधुर संलाप को कब सुनूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 46 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 46

यद्यपि अपने प्रियतम की गोद में स्थित हैं, फिर भी अकस्मात् ‘हा मोहन !’ ऐसा मधुर प्रलाप कर उठती हैं। ऐसी श्याम-सुन्दर के अनुरागमद से विह्वल मोहना ही कोई श्यामामणि निकुञ्ज-प्रान्त में जययुक्त विराजमान हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 47 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 47

हे राधिके ! किसी अभ्यन्तर कुञ्ज-भवन में आप अपने प्रियतम के साथ किसी अनिर्वचनीय रसोत्सव में संलग्न हों, जिससे भूषण ध्वनि मिश्रित आपके मधुर आलाप का स्वर सुनाई दे रहा हो और मैं आपको एकान्त परिचारिका, कुञ्जद्वार में स्थित होकर उसे सुनें । और उसे सुनते ही प्रेम-विह्वल होकर रस के सरोवर में डूब जाऊँ । हे स्वामिनि ! ऐसा कब होगा?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 48 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 48

अहो ! जो स्वर-लहरी भरी अपनी मधुमती नाम्नी वीणा को उठाकर कर-कमलों में धारण करके अपने प्रियतम नागर-शिरोमणि श्रीलालजी.की भाव-लीलाओं को गाती रहती हैं और बड़ी कठिनता से अपार सा दिन अश्रुओं को वर्षा द्वारा व्यतीत करती हैं। अहह ! ऐसी प्रेम-विह्वला श्रीराधा मेरे हृदय में निवास करें।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 49 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 49

अहो ! पारस्परिक हास-परिहास युक्त विविध-विलास-केलि की विचित्रता से उच्छलित महा रस-विभव के द्वारा श्रीवृन्दावन में विलास करने वाले किन्हीं विदग्ध युगल ने मेरे हृदय का अपहरण कर लिया है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 50 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 50

जिनके चपल नेत्रों का नर्तन ही महान्तम प्रेम के विकास का नूतनरस से परिपूर्ण सुधासिन्धु है । जिसकी लहरियों के प्रबाह से मानों विश्व को स्नान करा रही हैं। जो विद्युत-पंक्ति के समान गौर और समस्त ब्रजनव तरुणियों की नव-रत्न हैं- शिरोमणि भूषण हैं, वे कोई नव मधुर किशोरी सर्वोपरिता को प्राप्त है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 51 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 51

तीव्र प्रेम के कारण जिनके हृदय के समस्त बन्धन (आग्रह) शिथिल हो चुके हैं, जो दया की सीमा हैं एवं जिनकी दिव्य-छवि लावण्य-माधुर्य से अति-ललित हो रही है, वे निखिल-निगमों को भी अत्यन्त अलक्षित,रस-समुद्र की सार-स्वरूपा कोई एक अनिर्वचनीय सुकुमारी है । उन श्रीराधा की जय हो, विजय हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 52 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 52

अहो! मैं अपनी स्वामिनीजी के निज कर-कमलों के स्नेह-पूर्वक दिए हुए प्रसाद रूप दुकूल और कञ्चुकि-पट को अपनी कुच-तटी में धारण करूंगी और सदा अपनी स्वामिनी के पाव में स्थित रहकर विविध परिचाओं में चतुर सुकुमारी किशोरी के रूप में अपने आपको क्या यहाँ देखूँगी।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 53 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 53

अहो श्रीराधे ! मैं आपकी ऐसी सुपरिचारिका कब बनूंगी? जो कभी अपने कर-नखों से आपके केशों को सुलझाऊँ ? कभी आपके कनककलशों के समान गोल-गोल देदीप्यमान कुच-कलशों पर कञ्चुकि-पट धारण कराऊँ ? तो कभी आपके दोनों सुहावने गुल्फों में मणि के मञ्जीर युगल (नूपुर) पहनाऊँ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 54 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 54

मैं अत्यन्त स्नेह-पूर्वक उच्च स्वर से श्रीहरि के नामों का गान करती रहूँ; सुगन्ध आदि अनेक उपचारों से उनका पूजन करती रहै तथा श्रीवृन्दावन में अनुचरण करती हुई परमानन्द को धारण करती रहूँ, इसके साथ-साथ मेरा मन निरन्तर श्रीराधिका के मृदुल पाद – पद्मों में बसा रहे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 55 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 55

‘मेरी प्राणेश्वरी की यह दया पात्र है’, ऐसा जानकर अद्भुत गतिशोल प्रियतम मेरा बार-बार चुम्बन करते हैं, और सुरत-मदिरा से मुझे उन्मद बना देते हैं । यद्यपि वे इस प्रकार विचित्र स्नेह-वैभव की रचना करते हैं; तथापि हे श्रीराधे ! मेरा मन तो आपके ही श्रीचरणों के रसबिलास में रहता है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 56 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 56

श्रीराधा – माधव किसी अनिर्वचनीय उज्ज्वल प्रीति – पूर्ण कौमार अवस्था का ही सेवन करते रहते हैं, जिनमें परस्पर के नामोच्चारण-मात्र में ही प्रफुल्लता-पूर्वक समस्त गेम पुलकित हो उठते हैं । अहो ! क्या कभी ऐसा होगा कि मैं श्रीवृन्दावन से नवीन-नवीन पुष्प चयन करवे लाऊँ, तथा शैशवावस्था के खेल ही खेल में किसी गूढ़ कुञ्ज के भीतर हर्ष के साथ दोनों का विवाहोत्सव करूँ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 57 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 57

जैसे मदमाती करिणी वन में गजराज से मिलन प्राप्त करने के लिये उदार गति से आती हो, ऐसे ही जो मद-गज-माती गति से पाद-विन्यास करती हुई श्रीयमुना के पुलिन पर आ पधारी हैं । तथा अपनी वीणा में सुमधुर गान करती हैं, क्योंकि इस कला की आप निधि हैं। अहा ! आपकी वीणा के पञ्चम स्वर में मिलाकर श्रीलालजी ने भी अपने वेणु की तान छेड़ दी है । ऐसी श्रीवृषभानु-नन्दिनी अपने प्रियतम के साथ मुझे यमुना-तट पर कब मिलेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 58 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 58

परम मनोहर हास-युक्त अद्भुत विलास-रासोत्सव में विचित्र और उत्तमोत्तम नृत्य की गतियों के लेने से जिनके युगल गण्डस्थल श्रम-जल (प्रम्वेद) से गीले हो रहे हैं । जन नागरी-मणि श्रीप्रियाजी और रसिकशेखर श्रीलालजी के पद-कमलों के लालन से जीवन को सुन्दर बनाती हुई, कब आनन्द पूर्वक उनका भजन करूँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 59 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स° 59

“हा राधे ! मैंने चतुर-सङ्गत द्वारा जो पथ आपको दिखलाया है, उस पर न चलोगी क्या ?” मै इस प्रकार विलाप करती और श्रीवृन्दावन के मंजुल निकुञ्ज-गृहों में आपको खोजती हुई फिरूँ तथा आपकी कुच-तटीचर्चित कस्तूरी से पङ्किल कालिन्दी-सलिल में बारम्बार स्नान करके अपने कुदेह-जनित मल को त्यागकर कब निर्मल होऊंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 60 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 60

रस की एकमात्र दाता मेरी स्वामिनि ! प्रणति के द्वारा आपके चरणों का स्पर्श ही जिनके लिये रसोत्सव रूप है, ऐसे इन्दीवर श्याम को आपके प्रति प्रार्थित करूं, सुन्दर सुमञ्जुल एकान्त निकुञ्ज-भवन का मार्जन करूँ, तथा पुष्प-माल, चन्दन, इत्रदान (परिमल पात्र ), रस युक्त ताम्बूल और अनेक प्रकार के सुस्वादु पेय पदार्थ आपके कुच-भवन में पहुँचाऊं, भला, कभी ऐसी टहल करने वाली दासी रूप में आप मुझे स्वीकार करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 61 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 61

जो इस जगत् को अपनी सौन्दर्य-सुधा-वाणी से संप्लावित करती हैं तथा जो अपने श्रीमुख की ज्योत्स्ना से मानो शरत्कालीन अनन्त चन्द्रमाओं का प्रकाश विस्तार करती हैं । अहो ! आश्चर्य है कि श्रीवृन्दावन मजुल-निकुञ्ज-भवन की उन्हीं अनिर्वचनीय स्वामिनी ने अपनी सेवा का आनन्द देकर समस्त साध्य-साधन कथाओं को मेरे लिये तुच्छ कर दिया है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 62 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 62

हे कितव ! हे धूर्त्तशिरोमणि ! आपके दो-तीन-बार प्रार्थना करने पर (उसके उत्तर रूप में) जिन्होंने अपनी दृष्टि के द्वारा उदार संकेत स्थान का निर्देश कर दिया है ऐसी श्रीराधा तुम्हारे वचनों की आशङ्कावश (भयवश) तुमसे मिलने न जा सकेंगी; तब अनुचरी रूप में सङ्ग चलने के लिये मुझे कब आदेश करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 63 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 63

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अहा ! श्रीराधा की निरुपम भृकुटियों की वह नर्तन् चातुरी! सुन्दर-सुन्दर नयन-कोरों का वह लीला-पूर्ण कटाक्ष ! एवं वर-वदनी श्रीस्वामिनी की मनोहर वचन-चातुरी ! एकान्त में आगमन-निर्गमन की चातुरी के साथ-साथ नवीन केलि-कलाओं की विदग्धता और सखिजनों के हास-परिहास आनन्द की चातुरी ! सभी एक से एक बढ़कर हैं-सभी उत्कृष्ट हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 64 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 64

श्रीराधा-माधव की कौमार-कालीन नवीन-केलि चातुरो-तरङ्गों की परस्पर उपदेश-रूप शिक्षा-दीक्षा का रस परावधि रूप से मेरे चित्त में उदित हो । अहा ! कितने मधुर हैं, ये थीराधा माधव ? दोनों के हृदयों में महानतम उदार अनुराग का विकाश हो रहा है, जिससे माधुर्य-धारा की सारधुरीण का स्फुरण हो रहा है । वह धुरीण क्या है ? दोनों की दिव्यतम ललित अनङ्ग उत्सव की क्रीड़ा, जो कुमार अवस्था में ही चित्त में बड़ी भारी आर्त्ति को उत्पन्न कर रही है, जिससे दोनों परस्पर एक दूसरे के श्रीअङ्गों का बारम्बार स्पर्श कर रहे हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 65 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 65

क्या कभी मैं श्रीराधा और श्रीव्रजपति-कुमार का दर्शन करके पूर्णता को प्राप्त होऊँगी? जो किसी समय ब्रज-नगर की वीथियों में खेलते-फिरते एकान्त पाकर अकस्मात् कोमारावस्था को त्याग कर नव किशोरता के वैभव को प्रकट करके दिव्य हास-परिहास में संलग्न हो गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम-केलि से सुकृती-जनों के हृदय का अपहरण कर रहे हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 66 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 66

हे श्रीराधे ! सौरभ – उल्लसित – नूतन फुल्लमल्ली – माल – गुम्फित आपकी वेणी, ललाट-पटल पर शोभित अत्यन्त लाल सिन्दूर विन्दु, बड़े-बड़े नयनों की अनुपम कटाक्षच्छवि, प्रेमोल्लास-पूर्ण चाँदनी के समान मनोहर हास और आपके युगल बक्षोज की रहस्यता का मैं स्मरण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 67 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 67

जिन व्रज-सुन्दरियों की लीलाओं में कोटि-कोटि लक्ष्मी-समूहों के विशेष लक्षणीय लक्षण शोभा पाते हैं, उन्हीं शत-शत किशोरियों का जो आराध्य है, एवं उज्ज्वल रस के प्रारम्भिक भाव का सिञ्चन करता हुआ देदीप्यमान (ज्योति-स्वरूप ) अति मधुर, श्रेष्ठ, श्रीराधा नामक तत्व है। वह [श्रीराधा तत्व ] ब्रजमण्डल-स्थित किसी भाग्यवान् ( महापुरुष ) के ध्यान-विभावित चित्त में महाभाग्य वैभव से ही विस्तार को प्राप्त होता है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 68 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 68

जो अपने नवीन यौवन के उदय-काल में महान्तम सौन्दर्य-लीला से युक्त है तथा जो घनीभूत आनन्द एवं घनानुराग-रचित मूर्त्ति श्रीलालजी का सम्मोहन कर लेता है, जिसकी गौर छवि नवीन केशर के समान है, जो श्रीवृन्दावन-निकुञ्ज-केलि में अति ललित है और जो ब्रजेन्द्र-गृहिणी यशोदा किंवा कीर्तिदा के लिये श्रीगोविन्द के समान प्रेम का एक ही पात्र है, वह कोई अनिर्वचनीय तेज जय-जयकार को प्राप्त हो रहा है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 69 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 69

अहो ! प्रेमानन्द-रस के महान् समुद्र की तरङ्ग-मालाओं से आकुल एवं अपने अरुण और चम्चल नेत्राञ्चलों के चमत्कार (कटाक्ष) से केलिकला-महोत्सव का सिञ्चन करती हुई अद्भुत प्रेम-वैभवमयी जगन्मोहिनी अनिर्वचनीय श्रीराधा वृन्दावन के निकुञ्ज मन्दिर में आनन्द-बिहार करती हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 70 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 70

जिन्होंने नवीन प्रेमानुभाव-प्रकाशन-पूर्ण चञ्चल भ्र-भङ्गी के लेगमात्र से ही ब्रज-मणि श्रीलालजी को मोहित कर लिया, जो भक्तों के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये एक ही चिन्तामणि हैं, जो घनीभूत आनन्द रसामृत की निर्झरिणी-रूपा मणि हैं और जिनकी अङ्ग-ज्योति अत्यन्त प्रकाशमान कोटि-कोटि विद्युल्लताओं के समान है, वे कोई अनिर्वचनीया महा-मोहिनी रमणी-चूड़ामणि वृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में उदित हो रही हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 71 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 71

जिनके तरुणावस्था के प्रथम प्रवेश-काल में ही हाव-भाव पूर्वक किये गये एक-एक अपाङ्ग-नर्तन से अत्यन्त दर्प-पूर्ण महा कोदण्ड की टङ्कार को शनैः-शनैः विस्फारित करने वाले कोटि-कोटि कन्दर्प उत्पन्न होते हैं, ऐसी महामाधुरी की अनन्त धाराओं से चमत्कृत श्रीराधिका हो मेरी स्वामिनी हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 72 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 72

ओ दैव ! तुझे नमस्कार है ! धन्य है तेरी महिमा ! जिससे प्रेरित होकर काल-क्रम के प्रभाव-वश प्रेमात-रस-समुद्र श्रीलालजी की भी निधि.श्रीराधिका साधारण (सुलभ) हो गई हैं ! अहो ! जो गोपियों के भावों को एक मात्र आश्रय हैं और जिनकी चरण-कमलों की रेणु के कण-मात्र को ब्रह्मा, शिव आदि भी अपने सिर पर धारण करने की इच्छा रखते हुए भी प्राप्त नहीं कर पाते।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 73 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 73

जहाँ कुञ्ज-भवन अभ्यन्तर भाग में परम-प्रेमी श्रीलालजी एवं श्रीवृषभानुनन्दिनीजू को रति-केलि होती रहती है, ब्रजपति श्रीलालजी के स्नेहीजनों की परम्परा वहाँ से दूर ही विराजे, एवं उनके सखा-गण भी दूर ही विराजमान रहें । भृत्य-वर्ग के लोग तो और भी दूर रहें । (इन लोगों के अतिरिक्त) अन्य-जनों का तो वहाँ प्रसङ्ग ही उपस्थित नहीं होता! यहाँ तो केवल उनकी परम-प्रिय किङ्करी ही द्वार पर स्थित रहकर विहारावसर क्वणित काञ्ची-ध्वनि श्रवण करती है या मैं श्रवण करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 74 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 74

हे श्रीराधे ! आपके गौर-अङ्गों की मृदुलता, मन्द-मुस्कान की माधुरी, नेत्राञ्चलों की दीर्घता, उरोजों की पीनता, कटि-प्रान्त की क्षीणता, पाद-न्यास की धीरता, नितम्ब-देश की स्थूलता, भ्रूलताओं की कुटिलता अधर-बिम्बों की रक्तिमा (ललाई) एवं आपके हृदय की रसावेशजन्य जड़ता मेरे ध्यान में प्रकट हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 75 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 75

हे नागरि! किसी समय प्रातःकाल आपने किसी का पीत-पट भ्रम में बदलकर पहिन लिया होगा, तब मैं उसे बदलकर नीलाम्बर धारण कराऊँगी । इसी प्रकार निकुञ्ज-भवन में आप अपनी कञ्चुकि भूल आई होगी, मैं दौड़कर उसे शीघ्रता पूर्वक लाऊँगी ।

विहार में आपकी कबरी शिथिल हो गई होगी, उसे मैं पुनः बाँधकर संवार दूंगी। आपकी मुक्तामाल टूट गई होगी, उसे पिरो दूंगी और आपके नेत्रों में फिर से अञ्जन लगाकर, कस्तूरी, कुंकुम, मलय आदि के द्वारा अङ्गों के नख-क्षतों को लेपित कर दूंगी। स्वामिनि ! क्या कभी ऐसा होगा?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 76 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 76

अहो ! जो केवल श्रीवृन्दावन में ही दृष्टिगोचर होता है, अन्यत्र.नहीं। जिसका वर्णन करने में श्रुति-शिरोभाग उपनिषद् भी समर्थ नहीं हैं। जो शिव और शुक आदि के भी ध्यान में नहीं आता। जो प्रेमामृत-माधुरी से परिपूर्ण है और जो नित्य किशोर है । उस रूप को देखने के लिये मेरे नेत्र खोजते फिरते हैं-चञ्चल हो रहे हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 77 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 77

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये उत्तम चार फल यदि विश्व में उत्कृष्टता को प्राप्त हैं तो भले ही रहें, हमें इनकी व्यर्थ चर्चा से क्या ? और ईश्वर की उस एकान्त भक्ति-योग-पदवी को भी हम सिर-माथे चढ़ाते है, अर्थात् भक्ति-योग का आदर तो करते हैं पर उससे भी क्या लेना-देना है ? हमारे चित्त को तो श्रीवृन्दावन की सीमा में विराजमान किसी घनीभूत आश्चर्यरूपा किशोरी-मणि के कैङ्कर्य रसामृत के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 78 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 78

जो मधुर और उज्ज्वल प्रेम की प्राण-स्वरूपा, श्रृङ्गार-लीला की विचित्र कलाओं की परम अवधि, भगवान् श्रीकृष्ण की आराधनीया कोई अनिर्वचनीया शासन-की हैं। जो ईश्वर-रूप श्रीकृष्ण की शची हैं तथा परम सुखमय वपु-धारिणी परा और स्वतंत्रा शक्ति हैं । वे श्रीवृन्दावननाथ-श्रीलालजी की पटरानी श्रीराधा ही मेरी सेव्या-आराधनीया हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 79 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 79

जो लोग श्रीराधा के चरणों का सेवन छोड़कर गोविन्द के सङ्गलाभ की चेष्टा करते है, वे तो मानों पूणिमा-तिथि के बिना ही पूर्ण सुधाकर का परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। वे अज्ञ यह नहीं जानते कि श्याम-सुन्दर के रति-प्रवाह की लहरियों का बीज यही श्रीराधा हैं। आश्चर्य है कि ऐसा न जानने से ही वे अमृत का महान् समुद्र पाकर भी उसमें से केवल एक बूंद मात्र ही ग्रहण कर पाते हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 80 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 80

किशोरावस्था के अद्भुत माधुरी-प्रवाह से जिनके अङ्ग अङ्ग की छबि सर्वाग्रगण्य हो रही है, तथा जो प्रेमोल्लास-प्रवाह के द्वारा सर्वश्रेष्ठता को प्राप्त हैं, ऐसी श्रीराधिका का जो महापुरुष तद्गत-चित्त से निरन्तर ध्यान करते हैं, उन्होंने कमों को नहीं छोड़ा, वरन् कर्मों ने ही उन्हें छोड़ दिया है और वे परम श्रेष्ठ भगवद्धर्म की ममता से भी मुक्त होकर सर्वाश्चर्य पूर्ण परम रस-मयी गति को प्राप्त हो चुके हैं। उन महान पुरुषों के लिये बारम्बार नमस्कार है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 81 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 81

श्रीगुरु के भजन रूप पराक्रम-युक्त वे कोई महाबुद्धिमान् पुरुष-गण इस पृथ्वी पर विरले ही हैं, जो न तो अपने बाहु-मूल में कभी शङ्ख-चक्रादि (वैष्णव-चिह्न) धारण करते और न कभी ललाट-पटल पर विचित्र हरिमन्दिर (तिलक) ही रचते हैं और न उनके कण्ठ-भाग में सुहावनी तुलसी की मालिका ही धारण होती है । (उन्हें तो इन सब बाह्य लक्षणों की सुधि ही नहीं, वे किसी अन्तरङ्ग रस में डूब रहे हैं।)


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 82 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 82

गूढाश्चर्य रूप उज्ज्वल रसाश्रित रसिक-गण वेदोक्त कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करें या न करें, माला,चन्दन आदि विषय-समूह अर्थात् भोगविलास के उपकरण गृहण करें या न करें। इससे उनको न कोई हानि है और न लाभ ही । अहो ! श्रीराधाकान्त के भाव में पारङ्गत-मति ऐसे रसिक क्या.कभी अल्पज्ञ, वहिर्मुख अथवा अन्य सकाम पुरुषों में से किसी के साथ मिल सकते हैं ? क्या कभी इस प्रकार के लोगों के साथ उनका मेल खा सकता है ? नहीं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 83 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 83

अलं विषय वार्तया नरक कोटि वीभत्सया, वृथा श्रुति कथाश्रमो वत विभेमि कैवल्यतः।

परेश-भजनोन्मदा यदि शुकादयः किं ततः, परं तु मम राधिका पदरसे मनो मज्जतु ॥83।।

विषय-चर्चा बहुत हो चुकी, इसे बन्द करो; क्योंकि यह कोटि-कोटि नरकों के समान घृणित है । श्रुति-कथा भी व्यर्थ श्रम ही है । अहो ! हमें तो कैवल्य से भय प्रतीत होता है (क्योंकि वह नाम-रूप रहित है) । परम पुरुष भगवान् के भजन में उन्मत्त यदि कोई शुक आदि हैं, तो रहने दो; हमें उनसे क्या प्रयोजन ? हमारा मन तो केवल श्रीराधा के पद रस में ही डूबा रहे, (यह अभिलाषा है।)


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 84 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 84

अहा ! स्वामिनी श्रीराधिका का वह सौन्दर्य ! वह नवीन वय में यौवन-श्री का प्रवेश ! वह नेत्रों को भङ्गिमा ! घनीभूत रस और आश्चर्य से परिपूर्ण वे युगल स्तन-कलश ! इसी प्रकार लाल विम्बाफलों के समान अधरों की बह मधुरिमा, साथ ही मन्द-मन्द मुसकान और रसमयी वाणी ! एवं वह सोलापूर्ण पाद-न्यास (मन्द-मन्द चलना) तो भूलता ही नहीं !!


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 85 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 85

हे नव- कुञ्ज नागरि ! मैं आपके उस कैङ्गय्र्य-प्राप्ति की आशा को धारण किये हुए हैं। जिससे क्षण-क्षण में अद्भुत रस की प्राप्ति होती है और जिसे उन अनुराग-उत्सव मयी ब्रज-किशोरी गणों ने प्राप्त किया था, जिन गोपी-जनों के अनुराग-उत्सव की लालसा लक्ष्मी, शुक, नारद आदि को भी रहती है। हे श्रीराधे ! मेरे लिये आप अपनी उस कृपा-दृष्टि का दान क्या कभी करोगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 86 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 86

श्रीस्वामिनीजी के युग-पद-कमल सौन्दर्यश्री की राशि हैं। उन चरणों को अच्छी तरह से पलोट कर प्यारे ने आपको शयन करा दिया है और श्री लालजी ने आपके मधुर-मधुर अमृत-सार रूप उच्छिष्ट प्रसाद को आपकी अत्यन्त कृपा से प्राप्त करके स्वाद लिया है, मैं उसी प्रसाद को प्राप्त करूं। इस प्रकार मैं आपका दास्य प्राप्त करके कब नव रसानन्द में मग्न होऊँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 87 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 87

हे राधे ! रति-लाम्पटय-पदवी-प्राप्त अपने प्रियतम के प्रति जब आप स्नेहवश मुझे सौंप देंगी तब भी मेरी निष्ठा क्या होगी, उसे सुनिये-“मैं मन्द-मन्द मुसकान के साथ तिरछे नेत्रों से प्यारे की ओर देखूँगी बस इतने मात्र से ही उनका शरीर रोमाञ्चित हो जायगा । पश्चात् मैं उन्हें.पुनः एक गाढ़-आलिङ्गन भी करूंगी, जिससे और भी वे प्रेम-विह्वल हो जावेंगे किन्तु इतना सब होते हुए भी मुझे आपके रस-मय चरण-कमलों का ही रसानुभव होगा”।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 88 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 88

“हे श्रीराधे ! कृष्ण-पक्ष अथवा श्रीकृष्ण के पक्ष वाले, नवीन नीलकमल, कृष्ण-सार मृग, श्याम-तमाल, नोल सजल मेघ एवं कृष्णा नाम रूप वाली कृष्णा (यमुना) ये सब के सब आपको प्रिय हैं, फिर क्या कारण है कि आपने श्याम-मूर्ति मनमोहन श्रीकृष्ण से ही विमुखता धारण कर रखी है”? स्वामिनि ! इस प्रकार कहने के पश्चात् क्या मैं आपको प्रहसितमुखी (विगत-माना) न देख सकूँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 89 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 89

जिनके लीला-पूर्ण कटाक्षों की तरंगें मानों समस्त दिशाओं को नील-कमल की श्यामलता प्रदान करती हैं एवं जिनके स्तन-मण्डल आकाश में दोलायमान् कनक-गिरि का विस्तार करते हैं। जिनके द्वारा रास-मण्डल में किया गया.पाद-विन्यास पृथ्वी को प्रफुल्लित स्थल-कमल (गुलाब) की तरह सुशोभित करता है। श्रीराधा की अनुगामिनि उन व्रज-किशोरी-गणों की मैं भावना करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 90 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 90

अहो राधिके ! आपका सम्पूर्ण श्रीवपु ही मानो एक विशाल रससमुद्र है। उस रस-सागर में आपके युगल-नयन ही मानों मीन की तरह भ्रमण करते फिरते हैं , एवं सुधा-सरिता में विहार करने वाले युगल चक्रवाक आपके ये स्तन-द्वय ही हैं । हे सुरतरङ्गिणि ! आपका यह गौरमुख ही मानों विकसित स्वर्ण-कमल है । स्वामिनि ! मुझे आपके कृपातरङ्ग की छटा प्राप्त हो।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 91 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 91

जो अपने कान्त-धन से धनी हैं, जो आश्चर्यमयी कान्ताओं की कुलमणि हैं। जिनके पद-कमल-शोभी नख-चन्द्र का कान्ति-कण कोटि-कोटि कमलाओं का एक मात्र इच्छित वैभव है, एवं जिनका श्रीअङ्ग अमर्यादित प्रवृद्धमान् प्रणय-रस रूप महासिन्धु के गम्भीर लीला-माधुर्य से उल्लसित है। वे कोई सबसे अगम्य किशोरी अपने कृपा-रस से रञ्जित करके क्या मुझे अङ्गीकार करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 92 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 92

कलिन्द-गिरि-नन्दिनी यमुना के पुलिनवर्ती मालती-मन्दिर में प्रवेश करके वनमाली श्रीलालजी ने अपनी ललित-केलि से जिनको चञ्चल कर दिया है, तथा प्रतिक्षण जिनसे अद्भुत लीला-रस का समुद्र चमत्कृत होता रहता है, ऐसी हे राधिके ! आप अपनी कृपा-तरङ्ग-छटा का मुझ पर विस्तार कीजिये।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 93 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 93

वृन्दाटवी-कन्दर्प श्रीलालजी आपके प्रसादोत्सव की वाञ्छा से आपकी किङ्करियों की अत्यन्त हर्ष-पूर्वक अधिकाधिक चाटुकारी करते हैं तथा आपके जिन युगल चरण-कमलों से सदा ही घनीभूत आनन्द एवं अनुराग की लहरी प्रवाहित होती रहती है; हे वृषभानुनन्दिनि ! मैं आपके उन्हीं श्रीचरणों की सदा वन्दना करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 94 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 94

जिसका एक-बार मात्र उच्चारण गोकुल-पति श्रीकृष्ण को तत्क्षण आकर्षित करने वाला है, जिससे प्रेमियों के लिये अर्थ, धर्मादि समस्त पुरुषार्थों में तुच्छता का स्फुरण होने लगता है, एवं जिस नाम से अङ्कित मन्त्रराज ( द्वादशाक्षर-मन्त्र ) के जपने में माधव श्रीकृष्ण भी सदा-सर्वदा प्रीति-पूर्वक संलग्न रहते हैं । वही अत्यद्भुत दो वर्ण ‘राधा’ मेरे हृदय में स्फुरित हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 95 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 95

योगीन्द्रों के समान जिनकी चरण-ज्योति के ध्यान-परायण होकर प्रेमाश्रु-पूर्ण नेत्र तथा गद्-गद् वाणी से कालिन्दी-तट के किसी निकुञ्जमन्दिर में विराजमान् श्रीहरि भी स्वयं जिस नाम का जप करते हैं । वही अनिर्वचनीय अद्भुत उल्लासमय एवं रति-रसानन्द से सम्मोहित ‘राधा’ इन दो अक्षरों को पराविद्या मेरे हृदय में सदा स्फुरित रहे।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 96 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 96

जो देवताओं, भक्तों, मुक्तों और स्वयं श्रीलालजी के सुहृद्-वर्गों से भी अत्यन्त दूर है, जो प्रेमानन्द-रस स्वरूप है, जो प्रेम-पूर्वक उच्चरित होने पर महा सुखकर है। श्रीलालजो स्वयं जिसको श्रवण करते एवं जप करते हैं अथवा सखी-गणों के मध्य में प्रीति-पूर्वक गान भी करते हैं और कभी प्रेमाश्रु-पूर्ण मुख से जिसका बारम्बार उच्चारण करते हैं, वही ‘श्रीराधा’ नामामृत मेरा जीवन है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 97 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 97

जिस प्रकार ब्रजमणि प्रियतम उनका आराधन करते हैं, उसी प्रकार वे भी प्रकृष्ट अनुराग के उल्लास से परिपूर्ण होकर अपने प्रियतम का आराधन करती हैं। गोविंद के साथ सख्य-भाव-प्राप्ति के लिये उत्सुक-जन भी जिनके आश्रय से परम-सिद्धि को प्राप्त होते हैं, जिनके आराधन से परम पद रूपा कोई रसवती सिद्धि प्राप्त होती है, वही श्रीराधा नाम्नी श्रुति-मौलि-शेखर-लता मुझ पर प्रसन्न हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 98 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 98

जिसके गात्र में कोटि-कोटि दामिनियों की छवि है, जिसके मुख से मानो आनन्द-रूप छवि का ही विस्तार हो रहा है। विम्बोष्ठ में नव-विद्रुम की छवि तथा करों में सुन्दर नवीन पल्लवों की छवि जगमगा रही है। जिसके युगल कुचों में स्वर्ण-कमल की कलियों की छवि है, उसी अरविन्दनेत्रा, नव-कुश-केलि-मधुरा राधा-नामक ज्योति की मैं वन्दना करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 99 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 99

जिनकी मनोहर दन्तावली मुक्तापंक्ति के तुल्य है, चारु अधरोष्ठ बिम्बा-फल के समान हैं; कटि अत्यन्त क्षीण है और गम्भीर नाभि में नवनव रसों की भंवरें पड़ रही हैं। जिनका नितम्ब-देश विशेष पीन (पृथुल) है, तथा नव-यौवन के विकास के कारण जो लावण्य की सिन्धु बन रही हैं। किन्हीं परम विदग्धाओं (चतुराओं) में भी कोई अनिर्वचनीय मणि रूपा नागरी श्रीराधा मेरी रक्षा करें।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 100 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 100

हे सचिक्कन नील-कुञ्चित केशिनि ! हे पक्व-विम्बाधरे ! हे चन्द्रानने ! हे चञ्चल बजन-मान-मर्दन नयने ! हे रुचिर नासान-भागशोभित-मुक्ताफले ! हे पृथु-नितम्बे ! हे कृशोदरि ! स्तन तटी स्थित अद्भुत वर्तुल छटा युक्त हे श्रीराधे ! हे भुजल्लि चारु बलये !! आप अपने (इस) रूप का (मेरे लिये) प्रकाश कीजिये-प्रत्यक्ष कीजिये ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 101 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 101

लज्जा-यवनिका डालकर मुसकान पुष्पाञ्जलि की रचना द्वारा ललित यौवन की प्रस्तावना की गई है। जहाँ कन्दर्प-नृपति द्वारा अधिष्ठित श्रोणी ही स्वर्ण-सिंहासन है। उस नव-रङ्ग-भूमि रूप श्रीराधाङ्ग में लीलापूर्ण कटाक्षों का विचित्र ताण्डव-कला-पाण्डित्य प्रकाशित हो रहा है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 102 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 102

अहा ! जिसमें लावण्य का वह चमत्कार ! वह नवीन वय और महा मोहन रूप ! वह केलि-कला-विलास की तरङ्गों की चातुरी विद्यमान है। जिस सर्वाश्चर्य की भूमि में। जहाँ किञ्चित् मात्र सोद्देश्य कर्म भी नहीं है। जहाँ न तो स्तुति है, न अपराध और न सम्भ्रम ही। श्रीराधा-माधव का ऐसा कोई अनिर्वचनीय और स्वाभाविक प्रेमोत्सव तुम्हारी (रसिकजनों की) रक्षा करे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 103 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 103

जिन चरणारविन्दों की महिमा श्रीवृन्दा कानन में चमत्कृत हो रही है। जो रस के अद्भुत निधान हैं एवं नवीन और उदार अनुराग-पूर्ण मधुर-मधुरानन्द-मूर्ति घनश्याम मुकुन्द भी जिनके दर्शन की अभिलाषा का विस्तार करते रहते हैं; वे श्रीराधा-पद-कमल क्या मेरे नयन-गोचर होंगे?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 104 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 104

राधे ! रसिक-शिरोमणि प्रियतम ने आपको आग्रह पूर्वक केलिशय्या पर ले जाकर किसी अनिर्वचनीय प्रकार से परिरम्भण करके अधरसुधा का पान किया हो और उन्होंने अपने प्रखर नखों से आपके स्तनमण्डल को रेखाड़ित किया हो, तत्पश्चात् आपके दोनों कर-कमलों को पकड़ कर नीबी-बन्धन का मोचन कर दिया हो; मैं निकुञ्ज भवन में रन्ध्र से लगी यह सब कब देखूँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 105 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक स°105

हे श्रीराधे ! मेरा ऐसा शुभ-दिन कब होगा, जब मैं आपके कुच-तटों पर अनिर्वचनीय पत्र-रचना करने के योग्य अपने हाथों को, कुञ्जो में प्रियतम के प्रति अभिसरण करती हुई आपका अनुगमन करने योग्य अपने पदों को, एवं कुञ्ज-छिद्रों से आपकी रहस्य-केलि दर्शन-योग्य अपने दोनों नयनों को देखूँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 106 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 106

हे श्रीराधे ! आपके अति लम्पट प्रियतम के साथ आपका अपना मधुर रहस्यालाप श्रवण करने का, अथवा हाथ पकड़कर आपको नव-रमण शय्या तक पहुँचाने का, एवं केलि-सम्मद-विगलित आपके केश-पाश को संयत करने का अधिकारोत्सव-रस, क्या आप मुझे प्रदान करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 107 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 107

श्रीवृन्दावन-स्थित नव-नव रसानन्द-पुञ्ज-निकुञ्ज जो गुञ्जन-शील भृङ्गी-कुल द्वारा मुखरित है, वहाँ मधुर-मधुर परिहास-पूर्वक परस्पर (गेंद) फेंकने, संग्रह करने और प्राप्त करके छुपा लेने, इत्यादि क्रीड़ाओं में रत केलि-समूह-सुसज्जित रसिक-मिथुन जय का प्राप्त हो रहे हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 108 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 108

हे शरत्कालीन कोटि चन्द्रवदने ! हे केश-पाश-गुम्फित-मल्लीमालआमोद-द्वारा भ्रमरावलि-विकल-कारिणे ! हे उज्ज्वल कण्ठाभरण – युक्त कम्बु-ग्रीवे ! हे मृदुल – वाहुवल्लरि – संचलत्कङ्कणे ! हे कौशेय दुकलधारिणि ! हे शब्दित नूपुर पादाम्बुजे ! हे श्रीराधे ! क्या मैं कभी आपके इस अद्भुत रूप को देखूँगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 109 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 109

“अयि स्वामिनि ! सखी-निवास श्रीलालजी ने आपकी सुवहुल मोहन आकाङ्क्षा से एक ओर भय, दूसरी ओर लज्जा, इधर कुल तो उधर यश और श्री इत्यादि अखिल शृंखलाओं को तुम्हारे लिये ही नष्ट कर दिया है”। मेरी इस सगद्गद् वचनावली को सुनकर आप ‘क्या-क्या’ कहकर हंसती हुई पूंछेगी, ऐसा कब होगा?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 110 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 110

हे प्रणयिनि ! श्याम-सुन्दर तो आपकी चाटुकारी कर रहे हों, किन्तु आप मुझसे वार्तालाप कर रही हों और जब श्याम-सुन्दर आपके दुकूलपल्लव को पकड़ लें तब भी आप हुङ्कार-पूर्वक मेरी ओर ही (किञ्चित् रोषयुक्त) दृष्टि से देखें। जब प्रियतम आपकी भुजलता को पकड़ लें, तब आप उल्लसित होकर रोमावली से अलङ्कृत हो उठे । क्या आपकी ऐसी रसलीन मूर्ति को देखकर पश्चात् आपके हास्य को देखूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 111 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 111

अहो ! नव-निकुञ्ज में नव-नागरी के कुचों के साथ किशोर-केलि जिन्हें प्रिय है एवं जो सखियों के प्रति निःसंकोच एवं पूर्ण विनय में ही हर्ष प्राप्त करते हैं, वे कोई रसिक-शेखर श्रीवृन्दावन में स्फुरित हो रहे हैं। ये मुझ पर कृपा करें और अपनी प्रियतमा के रसमय पद-कमलों में मुझे अविचल स्थान दें।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 112 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 112

जो सखि-गणों के द्वारा विचित्र एवं श्रेष्ठ आभूषण, उज्ज्वल दुकूल, उत्कृष्ट कन्चुकि, तिलक और गन्ध माल्यादि से विभूषित की गई हैं, एवं जिन्होंने समस्त विद्याओं एवं कलाओं में स्वयं ही हमें सुशिक्षित किया है वे स्वामिनी श्रीराधा सुरास-मधुरोत्सव में हमें कब प्रवेश देंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 113 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 113

उत्कृष्ट मणिमय किङ्किणि, वलय, नूपुर-शोभित महा-मधुर मण्डल के अद्भुत विलास-रासोत्सव में प्रियतम श्रीलालजी के द्वारा गृहीत-कण्ठ होने पर भी हम कब केवल निज रसेश्वरी श्रीराधा के चरण-चिह्नों का ही दर्शन करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 114 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 114

जो कुछ भी मैंने गोविन्द के कथा-सुधा-रस-सरोवर में अपने चित्त को डुबाया है अथवा उनके गुण-कीर्तन, चरणार्चन, विभूषणादि-विभूषित करने में दिन लगाये हैं किंवा उनके प्रिय-जनों के प्रति जिस-जिस आत्यतिकी प्रीति का विधान किया है [या मेरे द्वारा हुआ है.] उस सबके द्वारा (फल स्वरूप) गोपेन्द्र-नन्दन श्रीकृष्ण की जीवन-प्रणयिनी  मुझ पर प्रसन्न हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 115 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 115

यदि ब्रज-वरीयान् वृषभानुराय की पूर्ण-प्रेम-रस-मूर्ति पुत्री (दुलारी) का हमें एकांत दास्य-लाभ हो जाय, तो फिर हमें धर्म से, देवता-गणों से, ब्रह्मा और शङ्कर से, और अरे ! श्याम-सुन्दर के प्रिय-मिलन-यत्न से भी क्या प्रयोजन है?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 116 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 116

हे चन्द्रवदनि ! हे मृग लोचनि ! हे देवि ! हे सुनासिके ! हे अरुण अधरे ! हे सुस्मिते ! हे सजीव शोभाशाली भुजवल्लि-युक्ते ! हे रुचिर शङ्खग्रीवे ! हे कनक-गिरि स्तन-मण्डले ! हे क्षीण-मध्ये ! हे पृथु नितम्बे ! हे कदली-खण्डोपम जानु-शालिनी ! हे चरण-कमलोद्भासित नख-चन्द्रमण्डल-भूषिते । हे श्रीराधे ! मैं आपकी आराधना कब करूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 117 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 117

श्रीराधा-चरण-कमलों में मेरी नियपट एवं अचला प्रीति ( भक्ति).देखकर श्रीप्रियाजी के अद्वितीय भक्त (प्रेमी) श्रीमोहनलाल महाप्रेमाधिक्यपूरित निर्भर प्रीति-पूर्वक मेरा आलिङ्गन करके चुम्बन-दान करेंगे एवं अपना चर्षित-ताम्बूल मेरे मुख में देकर अपनी बनगाला भी मेरे कण्ठ में पहना देगे। ऐसा कब होगा?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 118 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 118

जिनका लावण्य परमाद्भुत है, जिनकी रति-कला-चातुरी अति अद्भुत है, जिन श्रेष्ठ-वपु की कोई अवर्णनीय कान्ति भी महा अद्भुत है, एवं जिनकी लीला-पूर्ण गति भी अति अद्भुत है । अहा ! जिनकी नेत्रभङ्गिमा अद्भुत से भी अद्भुततम है और जिनकी मन्द मुस्कान भी अद्भुत है, वे अद्भुत-मूर्त्ति श्रीराधा अपना अद्भुत रस-स्वरूप-दास्य मुझे कब प्रदान करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 119 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 119

हे श्रीराधिके ! मैं आपके रति-कला-सुख-पूर्ण श्रीमुख का स्मरण करती हूँ । अहा ! जिसमें भृकुटियों का सुन्दर नर्तन हो रहा है, चारु विम्बाधर कुछ-कुछ फड़क रहे हैं। प्रियतम श्याम-सुन्दर के द्वारा भुज-लता के पकड़े जाने से मधुर हुङ्कार-स्वर निकल रहा है एवं जिसे महा-रसिकमौलि श्रीलालजी अत्यन्त भय एवं कौतुक-मय दृष्टि से देखते ही रहते हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 120 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 120

हे मेरे मन ! तू तो श्रीराधा नामक ज्योति का ही भजन कर ! जिनके देदीप्यमान् मुकुट की छटा से दिशा-मण्डल विलसित हो रहा है। जो केयूर, अङ्गद, हार और कङ्कणों की छटा से रत्नों की शोभा को परास्त कर रही है। जिसमें नितम्ब-मण्डल की किङ्किणियों का कलरव हो रहा है एवं चरण-कमलों के नपुरों की मधुर ध्वनि शब्दित हो रही है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 121 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 121

अहो ! जो समस्त नव-तरुणि-मौलि ललितादि सहचरियों की भी भूषण – मणि रूपा हैं, जिनकी आकृति श्यामानुराग – जन्य देदीप्यमान् रोमोद्गम से चिह्नित है, जिनकी गौर छवि केशर-तुल्य है एवं जो अतीव उन्मद काम केलि से तरल (चञ्चल ) हो रही हैं। वे कोई मन्दस्मिता, मन्दार-द्रुम-कुञ्ज-मन्दिर-स्थिता, गोविन्द-पट्टेश्वरी मेरी रक्षा करें।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 122 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 122

हे व्रज – श्रेष्ठ किशोरी – गणाराध्य चरणाम्बुजे ! हे नारदादि महत्पुरुषों से भी अचिन्त्य भावोत्सवे ! हे स्वामिनि ! आप अगाध रस-धाम अपने चरण-कमलों की सेवा-विधि में मेरे लिये मधुर एवं उज्ज्वल कर्त्तव्य का ही विधान कीजिये।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 123 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 123

हे श्रीराधिके ! क्या मैं कभी आपके लीला-बिलास-अवधि सचकित अवलोकन का विलोकन करूंगी? कब? जब नागर-शिरोमणि श्रीलालजी के अङ्गों से आपके अङ्ग परस्पर आलिङ्गन-बद्ध होंगे, मैं अपने नखों से  आपकी अलक-मारी को ऊपर उठाकर देखूँगी कि आप अपने आनम्र मुखचन्द्र से कटाक्षों की छटा का प्रसरण कर रही हैं-वक्र अवलोकन कर रहीं हैं; और उस छटा का दर्शन शिरोवगुण्ठन-पट से किञ्चित्-किञ्चित् ही हो रहा होगा।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 124 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 124

जिनके अनुपम रसानन्द-कन्द मुख-चन्द्र को चन्द्रिका की कला के अणु से भी पूर्णिमा का चन्द्रमा तुच्छ है और जिनके गुलाबी अधरों ने सौन्दर्य-श्री की नव-सुधा-माधुरी के सार-रूप सिन्धु को धारण कर रखा है, वे काम-बाधा-दुखित (विधुर) मधुपति श्रीलालजी की जीवन-दायिनि श्रीराधा हम पर प्रसन्न हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 125 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 125

यदि अनेक-अनेक विचित्र राका-शशि उदित होकर अपनी प्रेमामृतज्योतिर्मयी तरङ्गों से अगणित कोटि ब्रह्माण्डों को आपूरित कर दें। तत्पश्चात् श्रीवृन्दावन की निकुञ्ज-सीमा में (स्थित) आप उसके आभास को भाव-पूर्ण दृष्टि से देखें, तभी हे श्रीराधे ! मैं उस चन्द्र के साथ आपके श्रीमुख की तुलना किसी प्रकार कर सकती हूँ। *पाठान्तर-लक्ष्यते।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 126 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 126

जो कालिन्दी-कूल-वर्ती कल्पद्रुम तल-स्थित भवन में उल्लसित केलि-विलास की मूल स्वरूपा हैं, जो श्रीवृन्दावन में सदा-सर्वदा प्रकटतर.रूप से विराजमान्, एकान्त सहचरी ललितादिकों के भावों से भव्य (सुन्दर) है अर्थात् परम सुन्दरी हैं एवं जो भक्तों के हृदय-कमल में अपने चरणारविन्दों का स्थापन करके मधुर-रस-सुधा का निर्झरण करती हैं, वे घनीभूत आनन्द-मूर्ति नित्य अभिनव-पूर्ण प्रेमलक्ष्मी (श्रीराधा) मेरे हृदय में स्फुरित हों।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 127 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 127

जो पवित्र-प्रेम-लीला की एक मात्र उत्पत्ति स्थान हैं; कैसा आश्चर्य है कि अपने प्रियतम की गोद में रहते हुए भी जो (विच्छेद) भय को धारण किये हुए हैं तथा जिनकी चरण-सुषमा-माधुरी का नीराजन माधव श्रीकृष्ण ने अपनी कोटि-कोटि प्राण-पंक्तियों से किया है, वे अत्यधिक देदीप्यमान्अ तुल कृपा-स्नेह-माधुर्य-मूर्ति श्रीराधा क्या कभी अपने अगाध अमृत-भरित दास्य-रस से मुझे अभिषिञ्चित करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 128 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 128

जो सर्वदा श्रीवृन्दावन निकुञ्ज-सीमा में अपने अनङ्ग-रङ्गोत्सव के द्वारा माधव की अत्यद्भुत अधर-सुधा का आस्वादन करके उन्मत्त हो रही हैं तथा जो गोविन्द के प्रियजनों को भी दुर्गम, सखी-समुदाय के लिये अलक्षित हैं, वे श्रीवृन्दावनाधीश्वरी कभी मुझे कृपा-पूर्वक अपना दास्य प्रदान करेंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 129 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 129

जिसकी सुन्दर कबरी नवीन-मल्लिका-दाम से निबद्ध है। सीमन्त सिन्दूर-रेखा से शोभित है। ( विशाल भाल ) नव-रत्नों के द्वारा विचित्र तिलक से युक्त है । गण्ड-मण्डल कुण्डलों से उल्लसित हैं । ग्रीवा में हेमजटित पदिक है और उदार हार (हृदय देश में ) शोभित हो रहा है।

जिसने अरुण-वर्ण का नव-दुकूल धारण कर रखा है, और कोटि दामिनियों के समान जिसको प्रभा है; ऐसे नित्य स्मर-उत्सवमय श्रीराधा नामक तेज का मैं दर्शन करती हूँ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 130 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 130

प्रेमोल्लास की चरम सीमा, परम रस (प्रेम ) चमत्कार विचित्रता को सीमा, सौन्दर्य को अंतिम सीमा, अनिर्वचनीय नवीन वय, रूप एवं लावण्य की सीमा; निजजनों के प्रति परम उदारता एवं वात्सल्यता की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, रति-कला-केलि-माधुरी की सीमा एवं सुख की परम सीमा श्रीराधा ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 131 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 131

जिनके उन सुकुमार एवं सुन्दर चरणों के प्रफुल्लित नवेन्दु की छटा के लावण्य का लव-मात्र ही समस्त श्यामा-रमणी मणियों के पूर्ण मण्डल का जीवन है। जो शुद्ध प्रेम-विलास की मूर्ति हैं एवं जो अधिकाधिक रूप में उन्मीलित महा माधुरी-धारा के सम्पतन को धारण करने में समर्थ हैं; वे केलि-विभव स्वरूपा श्रीराधिका ही मेरी गति हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 132 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 132

श्रीकलिन्दगिरि-नन्दिनी यमुना के जल-सीकरों को धारण किये हुए एवं मृदुगतिशील वृद्धि-प्राप्त रतिश्रम से युक्त, कोई अनिर्वचनीय नागरीनागर (युगल) अमन्द रस से जड़ीभूत हो रहे हैं और भ्रमर-समूहाकीर्ण वृन्दावनस्थ वर निकुञ्ज-मंदिर में अद्भुत क्रीड़ा द्वारा आनन्दित हो रहे हैं।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 133 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 133

जो प्रफुल्लित नील-कमल और पूर्ण विकसित स्वर्ण-कमल की शोभा से युक्त है, जो स्रवित रतिरस की आन्दोलन-शील काम-केलि से समन्वित है। जिसके चरण-कमल, नव रस-सुधा को प्रवाहित करते रहते हैं एवं जो अनिर्वचनीय परमानन्द की उत्पत्ति-स्थान है, ऐसी कोई अनिर्वचनीय युगल-ज्योति श्रीवृन्दावन में चमत्कृत हो रही है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 134 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 134

अहा ! कभी ताम्बूल-वीटिका अर्पित करूंगी, कभी चरणों का संवाहन करूंगी, कभी माला, आभूषणादि से उन्हें आभूषित करूंगी, तो कभी व्यजन ही डुलाऊंगी और कभी कर्पूरादि-सुवासित सुस्वाद अमृतोपम जल-पान भी कराऊंगी। इस प्रकार निकुञ्ज-भवन में कब निश्चय रूप से मैं श्रीराधा-माधव युगल-किशोर की सेवा करूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 135 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 135

प्रेम का एक अनुपम परिपूर्णतम सागर है। जिसके अङ्ग-प्रत्यङ्गों से नित्य-प्रति उज्ज्वल अमृत-रस उच्छलित होता रहता है । वह (प्रेममहानिधि ) लावण्य का भी अनुपम समुद्र है और अत्यधिक कृपामय वात्सल्य-सार का भी अम्बुधि है वह तारुण्य के प्रथम-प्रवेश से विलसित माधुर्य-साम्राज्य को भूमि है, और रस की एकमात्र सीमा है । वही ‘राधा’ नामक कोई परम-गुप्त महानिधि सर्वोत्कर्ष-पूर्वक विराजमान है।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 135 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 136

जिनकी प्रकाशमान पद-नख-मणि-ज्योति की एक छटा का विलास सघन प्रेमामृत-रस के कोटि-कोटि सिन्धुओं के समान है; वे श्रीराधा यदि कदाचित् कृपा दृष्टि-पात कर दें तो अनेक प्राकृत-अप्राकृत शोभायें और मुक्ति भी मेरे लिये तुच्छ हो जायें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 137 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 137

 मैं मधुर से भी मधुर आनन्द – रस – प्रद श्रीवृन्दावन में प्रियेश्वरी श्रीराधा के केलि – भवन नव – कुञ्ज – पुओं का कब अन्वेषण करूंगी ? और श्रीराधा – पद – कमल – मकरन्द – लहरी के अनवरत वर्षण से मेरा मन – मधुकर कब अधीर और मद – मत्त हो जायगा ?


 Shri Radha Sudha Nidhi Ji 138 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 138

 श्रीराधा – केलि – निकुञ्ज – वोथियों में विचरण करते हुए , श्रीराधा – नाम का उच्चारण करते हुए , श्रीराधा के अनुरूप अपने परम धर्म ( अपने किङ्करी – स्वरूप ) का रस – पूर्वक आचरण करते हुए श्रीराधा – चरणाम्बुजों को विविध उपचारों के द्वारा मोद – पूर्वक परिचा करते हुए , एव आश्चर्य – रूप उपरोक्त चर्या का आचरण करती हुई मैं कच वेदातीत ( वेदोपरि ) आचरण करने के योग्य हो जाऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 139 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 139

( श्रीराधा – माधव युगल – किशोर अपने किसी अत्यन्त गुप्त अनिर्वचनीय सङ्गम – विहार में संलग्न हैं । ) पारस्परिक वक्र नेत्र – क्षेपण रूप चन्द्र – दर्शन से दोनों ओर विस्तीर्ण अनङ्गाम्बुधि प्रकट हो रहे हैं । अहा ! और वे दोनों किसी परम एकान्त कुञ्ज – कुटीर – गत दिव्य तल्प पर विराजमान होकर किसी दिव्य एवं अद्भुत क्रीड़ा में रत हैं । जिससे श्रीराधा के चरण – मञ्जीर एवं माधव की कटि – किङ्किणि की सम्मिलित रूप से बड़ी ही मधुर ध्वनि यातायात ( विहार ) के कारण हो रही है । मैं उसे कब सुनंगी ? 


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 140 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 140

अनिर्वचनीय मधूत्सव – समुत्सुक , पारस्परिक दृढ़तर अनुराग के उल्लास से उन्मद हुए अनुपम नील – पीत – छविमान् भुवन – मोहन विदग्ध युगल मेरे मन को कब सर्वदा मद – युक्त कर देंगे ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 141 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 141

मेरी जिह्वा श्रीराधा – नामामृत – रस के आस्वादनार्थ सदा विह्वल ( लालचवती ) रही आवे । चरण श्रीराधा – पादाङ्कित वृन्दावन – वीथियों में ही विचरण करते रहें । दोनों हाथ उनके सेवा कार्यों में ही लगे रहें । हृदय सदा उनके मन्जुल चरण – कमलों का ही ध्यान करता रहे एवं उन्हीं श्रीराधा के रस – भावोत्सव – सहित श्रीराधा – प्राणनाथ लालजी में मेरी परम प्रीति हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 142 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 142

श्रीमुकुन्द के युगल सुन्दर पदारविन्द का अमल अमन्द प्रेमानन्द चन्द्र – चूड़ शिवजी आदि के लिये भी परम उन्मादक मूल है , किन्तु मेरा मन उसको भी शिथिल करके श्रीराधा – केलि – कथा – रस – समुद्र की चञ्चल लहरियों से आन्दोलित वृन्दावनस्थ निकुंज – मन्दिर के श्रेष्ठ – प्राङ्गण में आनन्द को प्राप्त हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 143 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 143

अनुदिन श्रीराधा – नाम के श्रवण – कीर्तनादि के प्राप्त होने पर कोटि कोटि श्रेष्ठ साधन भी परित्याज्य हो जाते हैं । श्रीराधा – पद – कमल – सुधा पर कोटि – कोटि मोक्षादि पुरुषार्थ न्यौछावर हैं । [ तभी तो ] श्रीराधा – पादाब्ज लीला – भूमि श्रीवृन्दावन में अमन्द ( वैभव – शाली ) कोटि – कोटि कल्पतरु सदा विद्यमान रहते हैं और श्रीराधा – किङ्करी – गणों के चरणों में अद्भुत कोटि कोटि सिद्धियाँ लोटती रहती हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 144 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 144

परस्पर में हाव – भाव – समूह के विस्तार से अनुरागामृत रस बह चला है । जिससे गुगल किशोर भीतर और बाहर भी प्रेम क्षुब्ध हो रहे हैं । जिसमें धूनर्तन ही तरङ्ग हैं । इस रस से युगल के नेत्र मद – धूणित हो रहे हैं ; वे नव – किशोर मिथुन निकुञ्ज – भवन के मध्य में रति – विलास – कला की रचना करके सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हो रहे हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 145 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 145

नन्द – नन्दन श्रीलालजी की दर्प – युक्त वाहु – लताओं के गाढ़ आलिङ्गन से जिनके समस्त अङ्ग शिथिल हो रहे हैं तथा जो अद्भुत एवं अनन्त रस कलाओं का विस्तार करती हैं । वे घनीभूत आनन्दामृत – रस एवं प्रेम – धन मुत्ति ( अनिर्वचनीय ) कोई किशोरी श्रीवृन्दावन के नव – लता – मंदिर में नित्य विराजमान हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 146 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 146

जो महानुभाव इस एकान्त देश में ब्रज – मणि श्रीकृष्ण और श्रीराधा के भाव और रस का निश्चय रूप से भजन करते हैं ; अहो ! वे न तो लोक को जानना चाहते हैं , न निगम समूह को ; न कुल परम्परा को जानने की इच्छा रखते हैं और न साधु – आचरण को ही । ऐसे रसिकों की स्थिति साधारण नहीं वरन् असाधारण है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 147 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 147

कोई ब्रह्मानन्द वादी हैं , तो कोई भगवद्वन्दना ( दास्य – भाव ) में ही उन्मत्त हैं । कुछ लोग गोविन्द के सख्यादि ( मैत्री – भाव ) को ही परमानन्द मानकर उसके आस्वादन में लग रहे हैं किन्तु श्रीराधा – चरण – कमलों की शोभायमान् नख – मणि ज्योति की एक किरण मात्र ही श्रीराधा – किङ्करियों के लिये अखिल सुख – चमत्कार – सार की सीमा है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 148 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 148

श्रीराधा – मधुसूदन का रहस्य न तो ब्रह्मादि देवताओं को ही विदित है न हरि – भक्तों को ही । और तो और श्यामसुन्दर के सखा आदिकों को भी वह सुविदित नहीं है किन्तु हरि । हरि !! मैंने उनको दासी होकर [ युगल की ] सम्बर्द्धमान् केलि को असमय में भी अपने नेत्रों से देखने की दुर्गम आशा कर रखी है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 149 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 149

प्रियतम ने कहा- ” हे श्यामे ! हे नित्य प्रणयिनी ! हे विदग्धे ! हे प्रिये ! आप रस – निधि में बारम्बार मेरा सुदृढ़ अनुराग हो ” । इस प्रकार प्रिययम श्रीकृष्ण के द्वारा कहे जाने पर ” हे रमण ! मेरे हृदय में आपके ( यही ) वचन है ” यह कहती हुई मन्द हास – युक्ता श्रीराधा मेरे हृदय में सदा – सर्वदा विलास करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 150 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 150

श्रीवृन्दावन के नवलता – वर मन्दिर में तीव्र कामोन्मद – रति – के लि कला – कौतुक – रस स्वरूप एवं सदा आनन्द – मय किशोराकृति वह युगल ज्योति अपने चरण – कमलों के शीतल मकरन्द से मेरे अति – घोर ज्वलित ज्वाल – भव ( संसार ) को शान्त करे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 151 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 151

हे प्रफुल्लित नव मल्ली – माल – शोभामाना – कबरि – भारे ! हे पृथु नितम्ब – मण्डल – मेखला – कलरवे ! हे शब्दायमान भूपुर – धारिणि ! हे केयूर अङ्गद कङ्कणावलि – विलसित भुजलता – दीप्तिच्छटे । हे स्वर्ण – कमल – कलिका स्तनि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके इस रूप – रस को कब अपने नेत्रों से पान करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 152 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 152

प्रफुल्ल कनक – कमल – मुखी हे श्रीराधे ! मर्यादा का अतिक्रमण करके सुरत – रस का जो सुधा – समुद्र उद्भूत हुआ है , उसके अत्युच्च सुधा – स्वरूप अङ्गों के द्वारा आपका श्रीवपु अनिर्वचनीय रूप – यौवन से आन्दोलित सा हो रहा है । आप प्रियतम के अङ्क में चञ्चल हो रही हैं , हे स्वामिनि ! आप हम सखियों के नेत्र – सुख का विधान कब करोगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 153 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 153

अहा ! जिसके अक्षर – अक्षर से अनुपम प्रेम – जलधि निर्धारित हो रहा है । जो कर्ण – पुटों में मानों अमृत – धारा – वृष्टि विधान करता है , एवं जो रस से सिक्त , परम कोमल , परम सुखद तथा परम शीतल है । हे श्रीराधे ! मेरे साथ कभी आपका वह रसमय सम्भाषण होगा जो सब प्रकार से अनिर्वचनीय है ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 154 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 154

हे श्रीराधे ! जो कोई आपके ‘ श्रीराधा ‘ इस एक ही अमृत – रूप नाम का गान अथवा स्मरण कर लेता है उसके अनन्त – अनन्त महत् अपराधों की आपके महाप्रेमाविष्ट प्रियतम मधुपति गणना न करके यह विचारने लगते हैं कि इसको ( इस नामोच्चार के बदले में ) क्या देना चाहिये ? अतएव जिन्होंने अपने मन में आपका एक – मात्र दास्य ही स्वीकार कर रखा है । उनकी महिमा – सीमा का स्पर्श कौन कर सकता है ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 155 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 155

कपूर की शीतलता के कारण जिनके कपोलों पर पुलक का उदय हो रहा है और जो अनियंचनीय रूप से दासी – वत्सला है । ऐसी श्रीराधा प्रिय तम श्रीकृष्ण के मुख – चन्द्र द्वारा चर्वित , नव – लयङ्ग – चूर्ण एवं प्रचुर कर्पर समन्वित ताम्बूल – खण्ड का आस्वादन करते – करते कब उस चवित ताम्बूल को मेरे मुख में अर्पण करेंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 156 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 156

काम – कलि – कोमल – कलाओं की कोटि – कोटि विचित्रताओं का विकास करने वाली , प्रेमानन्द – धन – मूति एवं सौन्दर्यामृत – राशि कोई अवर्णनीय किशोरी – मणि हैं । जिनकी नेत्र – कटाक्षच्छवि कालिन्दी के मनोहर बीचि बिलास की विशाल छवि की अपेक्षा अधिक चमत्कृत है । और अन्यान्य अद्भुत एवं महानतम लावण्य – लीलाएं भी जिनकी एक कला – अंश मात्र हैं , [ अथवा जो लीलाओं को निधान हैं । ये दिव्य किशोरी – मणि मुझे अपना दास्याधिकार प्रदान कर दासी रूप से स्वीकार करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 157 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 157

जिसने कसूभे रंग का अत्यन्त कोमल दुकूल धारण किया है , जिसकी कबरी बासन्ती – मल्लिका की ललित मालावली से निबद्ध है एवं जिसके विशाल कटि – तट ( नितम्ब भाग ) में देदीप्यमान् एवं मुखरित मेखला अलंकृत हो रही है । उस कनक – चम्पकमयी ज्योति को मैं कब देखूगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 158 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 158

प्रेमोन्मद रस – विलास पूरित अत्यन्त अद्भुत रास , जिसमें मधुपति श्रीलालजी के चारों ओर सखियां ऐसी शोभित हो रही हैं जैसे कङ्कण । इस रास में वे अपने प्रफुल्लित – चित्त कान्त – श्रीलालजी के साथ स्वरचित लास्य – कला – पूर्वक नृत्य कर रही हैं । मैं कब व्यजन एवं नव – ताम्बूल , शकल ( सुपारी ) आदि से उनकी सेवा करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 159 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 159

 जिस रास में विस्तार – प्राप्त – पटवास , प्रेम – सीमा का विकास , मधुर मधुर हास , दिव्य आभूषणों का विलास , एवं श्रीप्रियाजी के पुलकित अंश पर सुवलित वाहू पास है ; उस रास में श्रीराधा की मैं कब उपासना ( अभ्यर्चना ) करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 160 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 160

यदि कोई सौन्दर्य – धाम स्वर्ण – कमल कोटि – कोटि चन्द्रों की किरणों से पूर्ण हो और जिससे नवीन – नवीन मकरन्द झरता ही रहता हो , वह कमल , सौन्दर्य का तो मानो धाम ही हो ; जिसमें दो खञ्जन खेल रहे हों ऐसा अनुपम कमल भी श्रीप्रियाजी के मुख – कमल के मधुर हास के दास्य को प्राप्त नहीं करता ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 161 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 161

जो सुधाकर ( चन्द्र ) को भी असत् कर दिखाने वाला है , जो पद – पद पर देदीप्यमान् माधुरी के श्रेष्ठतम् सार – रूप नवीन किरणों के समुद्र से पूरित है , जो श्रीहरि अतृप्त के युगल – लोचन – चकोरों का पेय है और जो रस – समुद्र द्वारा प्रकर्ष को प्राप्त है । हे श्रीराधे ! मैं आपके उस वदन – चन्द्र को कब देखूंगी ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 162 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 162

जिनके मङ्ग – प्रत्यङ्ग से मधुरातिमधुर महा – कीति पीयूष – सिन्धु प्रवाहित होता रहता है , जिनका कोटि – कोटि चन्द्र – विनिन्दक शोभाशाली थोमुख अति मद – चञ्चल नेत्रों से युक्त है : अहो ! जो अत्यद्भुत सौकुमार्य से अति – ललित तनु हैं । क्या मैं ऐसी श्रीराधा की प्रणय – रसमयी आनन्द निझरिणी केलि – सरिता – प्रवाह में कभी अवगाहन करूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 163 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 163

” मेरे कण्ठ में नवाग्र – धात क्यों करते हो मैं कोई देत्यराज ( तृणावर्त ) तो है नहीं ? अरे ! मेरी कुष – तटी में पीड़ा मत दो मैं पूतना नहीं हूँ ” हे सखी ! प्रियतम – सङ्गम के समय तुम्हारे इन शुक – अनुकृत वचनों को प्रातः काल के लि – कुन का मार्जन करती हुई मैं कब सुनेगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 164 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 164

श्रीराधा – केलि – कथा – सुधा – समुद्र की महान लहरियों से आन्दोलित मेरा मन कालिन्दी – फलवर्ती श्रेष्ठ लता मन्दिर के प्राङ्गण में ही आनन्द पाता रहे और जागृत , स्वप्न एवं सुपुप्ति में भी श्रीराधा – पद – कमलो की छटा ही मेरे मन में स्फुरित होती रहे , कि वहुना , बैकुण्ठ अथवा नरक में भी धीराधा का अतिरिक्त मेरे लिये कोई अन्य गति न हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 165 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 165

अहा ! कालिन्दी – कूलवर्ती नव – लता – मन्दिर – गत – प्राङ्गण में रति केलि – मर्दन से उद्भूत ( प्रकट हुए ) श्रम – जल – प्रवाह से परिपूरित शरीर और सुख – स्पर्श से आमीलित ( मदे हुए ) नयन धीराधा – मधुसूदन को में कब अतुल शीतल सम्वीजन ( द्वारा ) बयार करूंगी?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 166 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 166

अहो ! मधुर एवं श्रेष्ठ रस – केलिमय श्रीवृन्दावन में विदग्ध श्रेष्ठ , नागरी – मणि ( श्री प्रियाजी ) एवं रसिक – शेखर ( श्रीलालजी ) कभी तो मधुर मधुर गान से , कभी अगन्द ( वेगवान् ) हिण्डोल से , ( झूलकर ) कभी कुसुम सुरभित बायु के सेवन से , तो कभी सुरत – केलि – चातुरी का प्रकाश करके क्रीड़ा करते रहते हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 167 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 167

अहह ! आज सहसा सन्ध्या- समय श्याम – किशोर – मौलि उन ( श्रीराधा ) के दोनों हाथ पकड़कर एकान्त कदम्ब – अटवी में प्रवेश कर गये ; वहाँ केलि – तल्प – मिनित महा – रति प्रवाह को प्राप्त हुए श्रीलालजी के श्रवण रन्ध्रों के आधय – रूप ( श्रीराधा ) सुख – तरङ्ग के तर्जन – शीत्कार को क्या मैं श्रवण करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 168 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 168

अहो ! यशोदानन्दन श्रीकृष्ण जो किशोरावस्था को प्राप्त हो ही चुके हैं , और श्रीमती राधे ! तुम भी प्रेमाधिनय के वश होकर उसी मधुर साधु योग को प्राप्त हो गई हो ; इस प्रकार कहते ही जिनका नित्य लीलानुकूल वयःश्री में प्रवेश हुआ है . ऐसी [ प्राकटब के साथ ही ] किशोरावस्था को प्राप्त किशोरी क्या हमारे दृष्टिगोचर होगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 169 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 169

एक कनक – चम्पक – छविमान है , तो दूसरा सजन – सपन – नील – मेघवत् श्याम । एक कन्दर्प – ज्वर से चञ्चल हो रहा है , तो दूसरा अन्तर से अनुकूल होकर भी बाहर से प्रतिकूल है । ऐसे ही एक मान की अनेक भङ्गिमाओं से पूर्ण है तो दूसरा रस – पूर्ण वचनों के द्वारा चाटुकारी – परायण । अहो ! क्या मैं कलि – निकुञ्ज की सीमा में इन महा मोहन युगल को देख सकूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 170 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 170

अहो । महा – मदन – वेग से आकुल होकर दोनों कभी तो अनुक्रब से विचित्र रति – पराक्रम को धारण करते हैं और कभी अनिर्वचनीय अभिनव नील – पीत पट का आपस में विनिमय करते हैं । इस प्रकार मञ्जुल निभृत निकुञ्ज – मन्दिर में भलौकिक अद्भुत गप से मिलित कोई दो अनिर्वचनीय नील – पीत ज्योति सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 171 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 171

अद्भुत कमल को हाथों में घुमाते हए , एवं परस्पर स्कन्धों पर पुलकित भुजलता अर्पित किये हुए , कामोन्मत्त , वृन्दावन – विहारी , ररिक युगल की सहास – रस – सुन्दर , प्रात आत मदपूर्ण करीन्द्र – गतिमान भनिमाओं के समान गति का ( हे मेरे मन ! ) तू स्मरण कर ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 172 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 172

जिनके मुग्ध नयन ही चञ्चल – मीन हैं , देदीप्यमान अधर ही विदम मणि हैं , जिनके पृथु नितम्ब ही द्वीप हैं उस द्वीर – विस्तार के तरङ्गायित प्रदेश में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के समान युगल – कुच हैं , जिनकी नाभि गम्भीर आवत्तं के समान है । मैं ऐसो श्रीकृष्ण – प्रेमामृत – महासिन्धु – रूपा श्रीराधा के युगल – चरणारविन्दों की परिचर्या करने की योग्यता का अन्वेषण करती हूँ ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 173 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 173

कैसा आश्चर्य है कि केवल शरीर से ही विलग होने में निमेष – मात्र का वियोगाभास ही जिनके मन और देह के लिये प्रकाशमान कोटि प्रलयाग्नि – ज्वाला के समान प्रतीत होता है । बस . उन्हीं गाड़ – स्नेहानुबन्ध से ग्रथित ( गंथे हुए से ) अद्भुत प्रेम – मूर्ति श्रीराधा – भाधव – नामकः युगल को ही मैं इस संसार में ( अपना ) परम – मधुर आथय जानती हूँ ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 174 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 174

नव – निकुञ्ज में नित्याभिनव रतिरण के उपरान्त , यौवन – मणि श्रीराधा के विगलित ( उन्मुक्त ) केश – पाश का मैं कब बन्धन करूंगी ? उनको टूटी मुक्ता – माला को कब पिरोऊँगी अथवा परदूरी – पङ्क के द्वारा तिलक को पुनः रचना कब करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 175 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 175

अन्यत्र का तो बात ही क्या श्रीविकुण्ठ – धाम भी ( श्रीराधा – माधुर्य के अभाव से ) कृष्ठित – प्रदेश बन गया है , क्योंकि श्रीराधा के माधुर्य को केवल श्रीमाधव ही जानते हैं और श्रीमाधव के माधुर्यं को केवल श्रीराधा जानती हैं और इन आस्वादनीय युगल को परम रस – सुधा – माधुरी अग्रगण्य श्रीवृन्दारण्य – स्थली ने श्रीराधा – किरी – गणों को सम्पूर्ण रूप से प्रदान कर दिया है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 176 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 176

जिसमें प्रफुल्ल मुख ही कमल है । नव – गम्भीर नाभि ही भंवर है । नितम्ब ही पुलिन है । उस नितम्ब देश ( पुलिन ) में मुखरित काञ्ची ही मानो मेक – माला है । जिसमें केवल विशुद्ध रस ही प्रवाहित होता रहता है और जो रसिक – सिन्धु ( श्रीलालजी ) से सङ्गम करने के लिये उन्मद हो रही है । उस श्रीवृन्दावनस्थ अनिर्वचनीय मुर – तरङ्गिणी की सदा जय हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 177 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 177

अहो ! आश्चर्य तो देखो ! मधुप – मन्द – गुज्जन – पूरित मधुर माधवी मण्डप में कोई सुरतामृत – मत्त दिव्य ( नील ) ज्योति स्मर – पीड़ा से क्षुभित होकर भी वृद्धि को प्राप्त हो रही है । और उस दिव्य ज्योति ने अपने सुख सुधामय शरीर – समुद्र ही नव – नव अनङ्गों को भी अनुरञ्जित करने वाली रस – तरङ्गिणी श्रीराधिका को धारण कर रखा है !


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 178 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 178

अहो ! जिनकी रोमावली यमुना के समान है । अङ्ग – प्रभा , बन्धूक बन्धु ( पुष्प – विशेष ) के समान है । जिनके सुललित सर्वाङ्ग में चम्पक की छवि प्रकट हो रही है । जो नाभि – सरोवर के कारण दर्शनीय ( शोभना ) बन रही हैं । जिनके वक्षोज ही पुष्प – गुच्छ हैं । भुजा ही लता – रूप में शोभित हैं और जिनके आभूषणों का शब्द ही मधुर झङ्कार है । ऐसो श्रीराधा दूसरी वृन्दाटवी के समान माधव के मन का हरण कर रही हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 179 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 179

मैं प्रात : काल निकुञ्ज – मन्दिर के मध्य भाग के सम्मार्जन के लिये प्रविष्ट होकर श्रीराधा – माधव के विचित्र सुरत – केलि के आरम्भ में अस्त ब्यस्त शस्या में लगे हुए पङ्कलि अङ्गराग के द्वारा कब अपने शरीर को भूषित करूगी ? एवं वहीं टूटकर गिरी हुई उनको पुप्प – माला का पुनः संधान करके उसे कब कण्ठ में धारण करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 180 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 180

कभी घर के तोतों को अपने प्रियतम के यश से अङ्कित श्लोकों का अध्यापन कराती हैं . तो कभी मंजुल गुआ – हार और मोर – मुकुट का निर्माण करती हैं । कभी प्रियतम की प्रिय – मूर्त्ति का चित्रण करके उसे अपने आकुल युगल – कुचों से चिपका ही लेती हैं । इस प्रकार के व्यापारों द्वारा मेरी प्रिय स्वामिनी श्रीराधा अपना वियोग – पूर्ण दिन व्यतीत करती हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 181 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 181

जो सदैव प्रियतम – सङ्ग सुधास्वादन का ही अनुभव करती हैं , जो नित्य नवीन भाविनी , ( कामिनी ) हैं , जो लीला – काल में पञ्चम – राग की अनुरागवती हैं , जो रतिकला की शत – शत भङ्गिमाओं का उद्भावन करने वाली हैं , जो करुण रस की सृष्टि की हैं , जो काटि – तट में काञ्ची – कला शब्द – कारिणी हैं , तथा जिनके पद – युगल से प्रेमामृत झरता ही रहता है , वे श्रीराधा ही मेरी एकमात्र गति है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 182 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 182

जो कोटि – चन्द्रों की छवि का उपहास करने वाली हैं , जिनका सम्भाषण नवीनतम् सुधा – समूह से पूर्ण है । जो अपने युगल – वक्षोज से स्वर्ण कुम्भ के श्रीगर्व का निर्वासन करती हैं । ये प्रेगोत्सव – उल्लासमयी चित्र – ग्राम ( बृहत्सानु , बरसाना ) निवासिनी श्रीवृन्दारण्य – विलासिनी ( श्रीराधा ) क्या मेरे लिये एकान्त – हृदयोल्लास की दाता होंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 183 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 183

गोविन्द की प्रसन्नता से प्राप्त हुए ललित ताम्बूल – खण्ड का बारम्बार स्वाद लेते – लेते जिनका शरीर पुलकित हो रहा है एवं जिन्होंने देदीप्यमान् नव – कमल – किञ्जल्क के रङ्ग का सुन्दर दुकूल अपने श्रीअङ्ग में धारण कर रखा है , वह मेरी प्रिय सखी श्रीराधा क्या कभी मुझे सङ्गीत – नाट्य में अपनी निपुणता की शिक्षा देंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 184 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 184

हे श्रीराधिके ! मैं आपके निर्मल बदन – मण्डल का स्मरण करती हैं । अहा ! जिसमें शोभायमान् दन्तावली मानों मोतियों की उज्ज्वल कान्ति मे पूर्ण है एवं अधर – पल्लव बड़े ही मनोज्ञ , देदीप्यमान और विद्रुम – मणि की छटा से भी अधिक सुन्दर हैं । कपोलों पर चञ्चल मकराकार कुण्डल और मुख – मण्डल पर चकित चारु नेत्राञ्चलों की अपूर्व शोभा है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 185 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 185

हे श्रीराधिके ! आपके जिस बदन – मण्डल में कुटिल अलकाबली चञ्चल हो रही है , भाल – स्थल तिलक से शोभित है , नासा पुट में तिल – पुष्प की भांति मुक्ताफल जगमगा रहा है और जो कलङ्क – रहित सजीव छवि से समुज्ज्वल है , आपके उस अति रस – पेशल ( रसाधिक्य सुन्दर ) बदन – मण्डल की मैं भावना करती है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 186 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 186

जो पूर्ण प्रेमामृत – रस के समुल्लास – सौन्दर्य के भी सार रूप हैं । जिन्होंने नवीन रति – कला के कोतुक से कुञ्जो – कुञ्जो में केलि करना अङ्गीकार किया है एवं जो विकसित – नील – कमल और कनक – कमल की कान्ति को भी हरण करने वाले हैं , वही किशोराकृति – ज्योति युगल किसी अनिर्वचनीय परमानन्द – कन्द स्वरूप में शोभा को प्राप्त हो रहे हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 187 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 187

जिन्होंने किञ्चित् विकसित केलि – बिलास जन्य कटाक्षों की एक ही कला ये श्रीवृन्दावन के मदोन्मत्त गजराज किशोर ( श्रीलालजी ) को बन्दी बना लिया है । और ऐसा बन्दी कि पूर्ण चतुर होते हुए भी ये उनकी लेश मात्र आज्ञा के वशवर्ती बने क्रिड़ा – मृग की तरह जड़ हो रहे हैं । वही श्रीराधा मेरी साधारण गति ( संसार – गति ) को शिथिल करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 188 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 188

हे गोपेन्द्र – कुमार – मोहन – कारिणि महाविद्ये ! देदीप्यमान् माधुरी सार विस्तारक रस – समुंद्र का सहज प्रवाह करने वाले नेत्र – प्रान्त बाली प्रिये ! हे कारुण – स्निग्ध कटाक्ष – भङ्गिमासहिते ! हे मधुर मन्द हास्यमय वदन – कमले ! हे स्वामिनि ! हे श्री राधिके ! हा ! हा !! आप मुझ पर अपनी थोड़ी – सी ही तो कृपा – दृष्टि का विक्षेप कीजिये ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 189 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 189

जिन्होंने प्रियतम को अपना चर्वित ताम्बूल देने के लिये उसे अधरों तक लाया है , जिससे ओष्ठ – प्रान्त में लालिमा उच्छलित हो रही है । जो विचित्र भङ्गिमाओं के सहित स्वरचित विभिन्न रागिनियों का उच्च स्वर में गान कर रही हैं . इस कारण ग्रीवा कुछ तिरछी सी हो रही है और युगल रुचिर भू – रलताएँ कुछ – कुछ कुञ्चित ऊपर की और चढ़ रही हैं । मान – सिद्धि के आनन्द से विपुल – पुलकावलि – मण्डित वे श्रीराधा अपने प्रियतम के पार्श्व में शोभा पा रही हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 190 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 190

 ” क्यों रे धुर्त्त श्रेष्ठ | हमारी प्राण – प्यारी सखी के निकट क्यों चला आता है ? दूर ही रह । तू नहीं जानता कि सुकुमारी बाला को कुच – तटी का स्पर्श करने मात्र से हो तू विमुग्ध हो जायगा ! ” ” हे श्रीराधे ! इस प्रकार वाणी – चातुर्य्य के द्वारा में भाव तुम्हारे अनुगमन – शील रसिक – नागर को दूर हटाकर तुम दोनों के हृदय को विमुग्ध करूगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 191 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 191

मैं कब श्रीराधा के करुणा – पूर्ण पद – कमलों को हृदय में धारण करके इस संसार में नित्य – आगत वेद – विधियों का अशेष रूप से त्याग कर दूंगी और कब सर्व – मुखद गोविन्द मुझे सेवाधिकार प्रदान करने के निमित्त मुझ अनन्य – धन्य को स्मर – कला ( निफुलान्तर सेवा – योग्य काम – कला ) का शिक्षण  करेंगे ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 192 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 192

प्रकर्य काम – सङ्ग्राम के आवेश – युक्त वेग के कारण उत्पन्न हुए प्रस्वेद जल से जिनके युगल – वपु आर्द्र , ( गीले ) शिथिल और चित्रित हो रहे हैं , वे श्रीराधा और रसिक – शेखर दोनों कुलद्वार में समासीन हैं । मैं कब परम – हर्ष के साथ उन दोनों को बयार करके पुण्य – शालिनि बनुगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 193 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 193

निकुञ्ज – भवनान्तर – स्थित नव – नव – पुष्प – रचित शय्या पर शयन करते हुए , एवं परस्पर प्रेमावेश – जनित घन पुलकाङ्कित भुजलताओं से आवेष्टित , गाड़ आलिङ्गन के उत्सव – रस से परिपूर्ण अर्थ निमोलित दृष्टि – युक्त युगल अधीश्वरों को मैं कब पादसम्बाहनादि सेवाओं के द्वारा सुख पहुँचाऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 194 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 194

 जिनके युगल विलोचन मद से अरुण वर्ण के हो रहे हैं । जो ( अपनी गौरता से ) कुन्दन के भी मद का मोचन करती हैं । जो महा प्रणय – माधुरी के रस – विलास में नित्य उत्साह – पूर्ण हैं एवं जिनकी उल्लसित नवीन वयः श्री अत्यन्त ललित भङ्गि – लीलामयी है । में उन अनिर्वचनीय हेम – गोर ज्योति को अपने हृदय में धारण करती हूं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 195 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 195

 मद – पूणित बिलोचन , नवीन रति रसावेश विवशता से उल्लासित वपु और प्राण – सहित प्रणय – परिपाटी में परतर , ( परम श्रेष्ठ ) पारस्परिक आलिङ्गन से वलयाकार – भूत , इन्द्र – नील मणि ( श्याम ) और बीभूत स्वर्ण छविमान ( गौर ) श्यामल गौर युगल मेरे हृदय में स्फूरित हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 196 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 196

 जो परस्पर प्रेम रस में निमग्न हैं और जिनकी केलि सम्पूर्ण चराचर के लिये सम्मोहन रूप है । ये कोई नील – पीत युगल श्रीवृन्दावनान्तर्गत नव कुञ्ज – भवन में शोभा पा रहे हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 197 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 197

भानु – नन्दिनी श्रीयमुना के तट में अविचल भाव से स्थिर रहकर एवं वृषभानु – नन्दिनी के दास्य – भाव को मन में धारण करके मैं वृन्दावन की कुञ्ज – वीथियों में क्या कभी अतिथि ( अभ्यागत ) होऊँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 198 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 198

कालिन्दी – तट के कुञ्ज में कोई अनिर्वचनीय पुञ्जीभूत रसामृत एवं निरवधि जद्भुत केलि – निधान श्रीराधा नामक स्वरूप उल्लसित हो रहा है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 199 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 199

 मूर्तिमती प्रीति – स्वरूपा , रस – सिन्धु की विमल सार सम्पत्ति एवं चतुर – शिरोमणि सखियों की भी हृदय – रूपा कोई अनिर्वचनीय श्रीवृन्दा बनाधिकारिणी ( स्वामिनी ) सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 200 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 200

 जिनका रुचिर मयुर – पिच्छ श्रीराधा चरणों में यत्र – तत्र विलोडित होता रहता है तथा जो विचित्र के केलि – महोत्सव से उल्लसित हैं , मैं उन रस धन – मोहन – मूर्ति हरि ( धीकरण ) की बन्दना करती है ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 201 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 201

मैं कब मधुसूदन के घनीभूत अमृत – रस – पूर्ण विचित्र एवं अनन्त चरित्रों का मधुर मधुर रीति से गायन करती हुई और उनके अभिराम केलि – भवन का सम्मार्जन तथा मलयज मकरन्द से सिञ्चन करती हुई रस समुद्र में निमग्न होऊंगी ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 202 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 202

अहो ! कस्तुरी द्वारा अपने युगल कुचों पर अनिर्वचनीय विचित्र पावली की रचना कर पुण्यवती होकर , मैं कब उन पुलकित रोमावली से शोभित , कम्पायमाद , अति मधुर लीला – मय तनु – धारिणी श्रीराधा का दर्शन करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 203 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 203

कोई अनिर्वचनीय वृषभानु – कुल – मणि किशोरी ही सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त हैं । जो सदा आनन्द की मूर्ति , महा प्रेम – स्वरूपा एवं प्रमद मदन के लिये भी श्रेष्ठतम् रस की प्रदाता हैं । ( अत्यन्त प्रेम – वैचित्य के कारण ) जो किसी क्षण सीत्कार करने लगती हैं , तो दूसरे ही क्षण अत्यन्त कम्पित होने लगती हैं फिर किसी क्षण ” हे श्याम ! हे श्याम !! ऐसा प्रलाप करने लगती हैं , और पुलकित होने लगती हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 204 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 204

जिन प्रेम – घनाकृति किशोरी के पद – नव – ज्योत्स्ना – प्रवाह में स्नान करके ( भक्त ) हृदयों में कोई अनिर्वचनीय सरस चमत्कारिणी भक्ति सम्यक रूप से उदय हा जाती है । वे गोकुल – भूप – नन्दन ( श्रीलालजी ) के भी मन का हरण करने वालो किशोरी मुझे अपना सर्व वेद – शिरोमणि ( उपनिषद् का भी परम रहस्य – रूप ) दास्य कब प्रदान करेंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 205 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 205

श्रीहरि के करकमलों द्वारा तूलिका से जिसमें यथेच्छ चित्रों की रचना की गई है । जो अनेक – अनेक केलि – चतुर गोप – रमणी – वृन्दो से बन्दित है एवं जो वेद – शिरोभाग ( उपनिषदों ) के हृदय में संगुप्त भाव से विद्यमान है , वही नृत्य – लीलामयो श्रीराधा – चरण – द्वयी मेरी गति है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 206 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 206

हे घनीभूत प्रेम रस – प्रवाह – वषिणि ! हे नवीन विकसित महामाधुरी साम्राज्य की सर्वश्रेष्ठ केलि – विभव – युक्त करुणा – कल्लोलिनि ! ( सरिते ! ) है श्रीवृन्दावन – चन्द्र के चित्त रूप मृगी – बन्धु ( हरिन ) के लिये प्रकाशमान बन्धन – रूपे ! हे नवकुञ्ज – नागरि ! हे श्रीराधे ! मैं आपके दास्योत्सव में बिक चुकी हूँ ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 207 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 207

अहो । श्रीराधिके !! आपने स्वमेव प्रियतम के सङ्गम – विहार की जो रचना की है । मैं उसे क्रूर ( हास – परायण ) सखियों से यह कहकर छिपाऊंगी , कि ” दूर प्रदेश से पुष्प – चयन करने के कारण ही प्रिय – सखी के शरीर में स्वेद – प्रवाह है , आपके वक्षोजों को भी कण्टको ने क्षत – विक्षत किया है और ओष्ठ पर जो व्रण हैं वह भी हिम – वायु के स्पर्श से ही उद्भुत हैं । “


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 208 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 208

क्या मैं कभी ऐसा देखूंगी कि श्री प्रिया – मुख – कमल का मधुपान करके अत्यन्त प्रेमावेश में भरे हुए श्रीकृष्ण – मधुकर निकुञ्ज – भवन के भीतर फिर प्रवेश पा लेने के लिये बार – बार श्रीराधा – चरण – कमलों में गिरकर प्रार्थना कर रहे होंगे ? और [ जब निकुञ्ज – प्रवेश हो जायगा , तब ] उन मधुर हास्य – मयी चन्द्र – मुखी ( श्रीराधा ) के मुकुलित युगल – कुच रूप कनक – कमलों को अपनी नखर – शिवाओं से विदीर्ण करते होंगे ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 209 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 209

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! यह सब वही कुंजे ! वही अनुपम रासस्थल तथा रति – रङ्ग – प्रणयिनी गिरि ( गोवर्द्धन ) गुहाएं है !! किन्तु हाय ! हाय !! बड़ा खेद है कि श्रीराधा कहीं नहीं दीखती ! हे प्राणेश्वरि । ऐसा होने पर मेरा हृदय कब शतधा ( शत खण्ड ) होकर विदीर्ण हो जायगा ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 210 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 210

 अहो ! मोहन – तनु थीप्रियाजी की नव – रति – कला इसी कुक्ष में अनुष्ठित हुई थी और उन रस – निधि ने अपने प्राण – प्यारे के साथ इसी स्थल पर नृत्य किया था । ” हे श्रीराध ! इस प्रकार आपकी चरितामृत लहरी का स्मरण कर – करके में कब इस वृन्दावन में चकित हो रहूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 211 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 211

हे श्रीराधे । आपके श्रीसम्पन्न अधर – बिम्बों से नवीन अमृत – माधुरी के कोटि – कोटि सिन्धु स्फुरित होते रहते हैं । आपके नेत्र – कोणों से पुष्प – धन्या कामदेव के कोटि – कोटि प्रचण्ड शर बिखरते रहते हैं । आपके उरोजों में अति प्रमत्त रति – कला का सार – सर्वस्व कोटि – कोटि प्रकार से शोभा पाता है और आपके श्रीचरण – कमलों से प्रेम – पीयूष – कोटि निरवधि रूप से प्रवाहित होता रहता है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 212 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 212

निविड़ आनन्दोन्मद – रस के घनत्व से प्रकट प्रेमामृत – मूति श्रीराधा और मधुपति श्रीलालजी के कुज – शय्या पर निद्रित हो जाने पर उनके अति कोमल पद – कमलों का सम्बाहन करते – करते मैं तन्द्रा प्राप्त होने पर शय्या के समीप ही क्या लूड़क रहूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 213 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 213

कितना सुन्दर यमुना तट ! श्रीराधा – चरण – कमलाङ्कीत एवं नव रस – प्रेमामृत पुञ्ज !! और उस कूल पर विराजमाना मैं ? परम सुन्दर , अत्यन्त उदार एवं मधुर भावना से भावित मेरा हृदय । कौनसी मेरी भावना ? श्रीवृन्दावन – बीथी – ललित – कला – चतुरा में और अतुल तथा गम्भीर अनुराग को एकमात्र मूर्ति श्रीस्वामिनीजी को वह मानसी सेवा परिचर्या । तो क्या होगा इससे ? क्या होगा | मैं कब इस भावना से पूर्ण होकर अन्य सब कुछ भूल जाऊँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 214 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 214

श्रीराधा के साथ अति ललित कन्दर्प – कला – केलि करते हुए नागरमणि श्रीकृष्ण को श्रीराधा के अङ्क में निमिय – मात्र के लिये भी न देशकर मूर्छित – वती मैं दुःख सागर में एकदम पतित होकर उसी वियोगार्ता ( श्रीप्रियाजी ) को आश्वासन न दे सकने के कारण अपनी उस ( विह्वल ) दशा की कब चिर अनुशोचना करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 215 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 215

हे कमल नयने ! आप बार – बार केवल वाणी से ही इनका निवारण कर रही हैं और ये धूर्तराज आपका अनुगमन किसी प्रकार भी छोड़ते ही नहीं ; अतएव आप कुछ ऐसा कीजिये , जिससे इनका मृदुल चित्त इनके ही चक्षु – मार्ग से आपके कुच – तटी – प्रान्त में अनुपतित होकर चूर्ण – चूर्ण हो जाय ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 216 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 216

जिनमें प्रेम – मूर्ति श्रीराधा की महिमा – सुधा किवा उनके भाव का वर्णन नहीं है उन सुशास्त्र समूहों से अथवा उन शास्त्र – विहित , साधुजन गृहीत मार्ग – समूहों से भी हमको क्या प्रयोजन है ? अहा ! जहाँ हमारी श्रीराधा नहीं है उस बैकुण्ठ – शोमा से ही हमको क्या ? किन्तु कोटि जन्मान्तरों में भी श्रीवृन्दावन – भूमि के प्रति हमारी मधुर आशा बनी रहे , यही बाञ्चछा है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 217 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 217

श्रीकृष्ण – प्रेम से विह्वल होकर जो ” श्याम श्याम ! ” इन अनुपम वर्णो का जाप करती हैं । कभी अपने बड़े – बड़े नयनों से स्थूल मुक्ता – माला के समान अश्रु – बिन्दुओं का वर्षण ( पतन ) करती हैं तथा कभी प्रियतम आगमन के सम्भ्रम से पद – पद पर चमत्कृत हो उठती हैं , वे हर्ष – पूर्ण पुलकित – रोम्नि श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 218 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 218

 हे प्रणयिनि ! हे श्रीराधे ! मोहन – मूर्ति श्रीब्रजपति – कुमार ( लालजी ) मेरे चरणों में गिरकर एवं दन्ताग्र – भाग में तृण दबा कर निष्कपट चाटुकारी की वचनावली कहते हैं और निरन्तर ही मेरा अनुगमन भी करते हैं । उद्देश्य यह है कि मैं उनका आपके साथ सङ्गम करा दूं किन्तु मैं ( श्रीलालजी के इस प्रकार मेरे साथ व्यवहार – जन्य ) अपने उद्वेग का आपसे क्या निवेदन करूं ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 219 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 219

अहो ! वे चतुर युगल इस वृन्दावन – भूमि में कहीं लीला – पूर्ण गति द्वारा हंस – मिथुन का अनुसरण करके , कहीं मयूरी के आगे मयूर की नटन भङ्गी की अनुकृति करके एवं कहीं लता – श्लिष्ट तश्बर का अनुकरण करके क्रीड़ा कर रहे है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 220 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 220

जिन्होंने अपनी कान्ति से विकसित इन्दीवर ( नील – कमल ) एवं स्वर्ण – कमल की शोभा को भी हरण कर लिया है और जो कालिन्दी के सुरभित एवं शीतल बायु का सेवन करते रहते हैं वह सधन आनन्द – मय , मधुराति – मधुर एवं प्रेम की उत्पत्ति – स्थान युगल – ज्योति श्रीवृन्दावन में विराजमान हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 221 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 221

कभी मधुर – स्वरा सारिकाओं को निज रस सम्बन्धी पद्यों का अध्यापन कराते हुए , कभी ताली बजा – बजाकर मयूरों को नचाते हुए , तो कहीं कनक – लता से आवृत तमाल के लीला – धन से धनी चतुर युगल श्रीवृन्दावन में जगमगा रहे हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 222 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 222

हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थलों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अघरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन कम तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्गलाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके मैं कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 223 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 223

” हे गोपेन्द्र कुमार ! तुम व्यर्थ गर्व क्यों करते हो ! तुमने तो केवल एक ही गोवर्धन पर्वत को प्रयत्न – पूर्वक धारण किया था , किन्तु श्रीराधा तो अपने सुन्दर शरीर पर [ एक नहीं दो- दो] हेम – शैल धारण कर रही हैं । जिन्हें देखकर ही तुम्हें भय लगता है । ” हे वृषभानु नन्दिनि ! मैं कब परिहास – पूर्वक इस प्रकार आपके प्रियतम से कहूँगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 224 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 224

अहो ! मञ्जुल निज – भवनाङ्गण में चतुर मागरी और नव किशोर का अनङ्ग – जय – मन – ध्वनित किङ्कणी का शब्द , स्तनादि का वर ताडन और नखर – दन्ताघात से मुक्त रति – रणोत्सव प्रकाशित हो रहा है । हे श्रीराधे ! मैं आपके कपोल – स्थानों पर ललित पत्रावली , कमल – दल वत् नयनों में काजल , बिम्बा – फल सदृश अधरोष्ठों में ताम्बूल – रङ्ग एवं युगल – उरोजों में केशर का अनुलेपन करू तथा हे नव – सङ्गमार्थ तरले ! चञ्चल रूपे ! आपकी पादांगुली – पंक्ति में प्रीति – पूर्वक सुरङ्ग लाक्षा – रस ( जावक – रङ्ग ) रञ्जित करके में कब पूर्ण मनोरथा बनूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 225 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 225

 किन्हीं दो युवक – युवती की किञ्चित् लज्जा युक्त नटकला को देखकर जिन्होंने अपने नवांकुरित सञ्चित महा रत्न – स्तनों को चकित – भाव से ढाँप लिया । ढाँप क्या लिया ? मानो , जिन्होंने यौवन की पाठशाला में नेत्रों द्वारा यह प्रथम दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार विश्व के मोहन करने वाले महा – रूप – लावण्य का सञ्चयन करती हुई कोई अनिर्वचनीय ललनावृन्द – मौलि अपने सखी – वृन्द के साथ श्रीवृषभानु – भवन में खेल रही हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 226 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 226

अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है ! इस ( अज्ञात – यौवना वाला ) के वक्ष पर शोभित मण्डलाकार ये दो ज्योति – पुञ्ज [ जब अभी ही ] हृदय को उन्मत्त बना रहे हैं , फिर आगे चलकर उन्माद से भी अधिक क्या फल देंगे , यह देखना है और ये सत्कटाक्ष – प्रवाह – रूप बाण – समूह भ्रू – कोदण्ड का संयोग हुए बिना ही प्राणों का हनन करते हैं तो संयोग होने पर क्या होगा , यह नहीं कहा जा सकता ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 227 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 227

 [ श्यामसुन्दर ने कहा- ” हे श्रीदाम , सुबल , वृषभ , स्तोक – कृष्ण , अर्जुन आदि सखाओ ! तुमने क्या देखा ? मेरी चकित दृष्टि ने कुञ्ज में प्रवेश न करने पर भी जो देखा है , उसे सुनो – अपने सौन्दर्य – प्रवाह से निखिल – भुवन को डुबा देने वाली एक अवर्णनीय देवी दूर से ही अपने प्रिय सखा मुझ श्रीकृष्ण की अखिल वस्तुओं का अपहरण कर लिया है । “


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 228 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 228

 [ सखाओं ने कहा – हे श्याम सुन्दर ! ] हमारी गाय दूर निकल गयी हैं , दिन भी समाप्त हो आया है , हम लोग भी थकित से हो चुके हैं । उधर तुम्हारी जननी मार्ग पर दृष्टि लगाये बैठी हैं इधर अकस्मात् तुम्हारे पृथ्वी पर मूच्छित हो गिरने , चुप हो जाने एवं सजल नयन , दीन बदन हो जाने के कारण हम लोग भी निश्चय है कि अब प्राण नहीं धारण करना चाहते ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 229 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 229

है राधे ! आपने अपनी नासिका के अग्रभाग में स्वर्णोज्ज्वल रुचिर नव – मौक्तिक धारण कर रखा है और आप / स्वयं | नाना – भङ्गि – विशिष्ट अनङ्ग – रङ्ग – बिलास – युक्त लीलान्तरङ्गों की अवलि आपके मुगल वक्षोज रत्नच्छटा – पुक्त चित्र – विचित्र कञ्चुकि से रुद्ध हैं – ढ़के हैं । अब आप इनकी अनुपम शोभा से ब्रज – मणि श्रीलालजी को सम्यक् प्रकार से प्रलुब्ध करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 230 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 230

यद्यपि [ श्रीप्रियाजी ने प्रियतम की ओर ] न देखने का निश्चय कर लिया है , फिर भी नेत्र – कोणों से उनकी ओर देर तक देखती ही रहती हैं । अहो ! [ आश्चर्य है । मौन का दृढ़ता – पूर्वक आश्रय लेकर भी ” वहीं चले जाओ ” इस प्रकार कह ही देती हैं एवं स्पर्श न करने का निश्चय करके भी उन्हें दोनों हाथ पकड़कर बाहर निकालती हैं । मैं हंसते – हंसते श्रीराधा के मान की इस दुःस्थिति को कब देखंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 231 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 231

अहा ! जो श्रीराधा हृदय – रूप अगाध सरोवर के हंस हैं , जिनके करतल में मुरली शोभित है , जिस मुरली के छिद्रों से सदा अमृत – गुण ( आनन्द ) पद – पद पर झरता ही रहता है । जिनके सिर पर चञ्चल मयूर चन्द्रिका तथा कानों में प्रमदाओं द्वारा सुरचित सुन्दर कर्ण – भूपण जगमगा रहे हैं एवं जिनके गले में प्रकाशमान गुञ्जा – गुच्छ ( माला ) योभित है वे रसिक – मोलि मुझे निश्चय ही मिलें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 232 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 232

अहो ! वे सहसा किसी ( गोपी ) के नव – वसन को खींचने लगते हैं , तो दूसरी के केश – पाश को मुरली से स्पर्श करते हैं और किसी का हाथ ही पकड़ लेते हैं परन्तु वही श्रीराधा – पद – कमल – मूल में सदैव लोटते ही रहते हैं । इस प्रकार ब्रज – पुर की गलियों में ये महा लम्पट – मणि ( श्रीकृष्ण ) भ्रमण करते रहते हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 233 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 233

सखी ने कहा- मैं इस महा लम्पट को खूब जानती है । यह किसी एक सखी का तो रति – चोर है और किसी अन्य के स्तन पर चकित होकर कर – स्पर्श करता है । किसी अन्य सुनयनी की कबरी – स्थित मल्ली – माल को वेणु से खोंचता है , किसी की पुलकित भुज – लता को पकड़ लेता – धारण करता है , तो किसी अन्य के सहित कुञान्तर – प्रवेश का संकेत करता है । किन्तु श्रीराधा के चरणों में सम्पूर्ण रूप से लोटता ही रहता है , ( इसकी यहाँ एक नहीं चलती ” ) ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 234 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 234

अहो ! वे श्रीलालजी कभी तो अपनी प्रियतमा के स्कन्ध पर पुलकित भुजदण्ड स्थापित करके मदोन्मत्त करीन्द्र की भांति अद्भुत गति से श्रीवृन्दावन में विचरण करते हैं और कभी मधुप – गुञ्जन मुखरित एकान्त कुञ्ज में स्वकीय अत्यभुत सुरत – शिक्षा की अभिव्यञ्जना करते हुए क्रीड़ा करते हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 235 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 235

श्रीश्यामसुन्दर ने सृष्टि आदि की चर्चा ही दूर कर दी है । वे नारदादि निज भक्तों का बिलकुल विचार भी नहीं करते । श्रीदामा आदि मित्र वर्ग के साथ भी नहीं मिलते और पिता – माता की स्नेह – वृद्धि भी नहीं चाहते । किन्तु वही मधुपति ( श्रीकृष्ण ) मधुर – रस – सुधा – सिन्धु की सारभूता अगाध प्रेम की एकमात्र सीमा श्रीराधा को ही जानकर अहर्निश कुञ्ज – वीथी में ही स्थित रहते हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 236 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 236

अहो ! सुस्वादनीय सुरस से पुष्ट अनिर्वचनीय नील – कमल – समूह के समान सुन्दर एवं श्रीराधा के वक्षोज की भूषण रूप कोई ज्योति श्रीवृन्दावन में आनन्दित हो रही है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 237 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 237

जो नवीन प्राप्त हुई शोभामयी चन्द्रिका का प्रकाश करने वाली हैं एवं अद्भुत वर्ण की सहचरियों में जटित मणि – सदृश हैं । जिनकी अङ्गच्छबि प्रतिक्षण अधिक – अधिक बढ़ती ही रहती है और जो उज्ज्वल मुक्ताफल के सुन्दर हारों से दीप्तिमान हैं । वे कोई लज्जा – नम्र – तनु एवं मन्द मुस्कान से मधुर के लिच्छटा – रूप परम उज्ज्वल अनिर्वचनीय कान्ति [ श्रीराधा ] अपने सर्वस्व – समर्पण के द्वारा अच्युत [ श्रीलाल जी ] को सन्तुष्ट कर रही है अथवा आप स्वयं सन्तुष्ट हो रही हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 238 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 238

यहीं श्रीवृन्दावन में मनोहर वेतम् – कुञ्ज में नारद , अज , ईश और शुकदेव के द्वारा भी सर्वथा अगम्य , श्रीकृष्ण के चित्त का हरण करने में एकमात्र विज्ञ कोई परम रहस्य विद्यमान है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 239 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 239

अहा ! जो लक्ष्मी के भी गोचर हैं जो प्रभु श्रीकृष्ण अपने सखाओं को भी प्राप्त नहीं हैं और जो ब्रह्मा , नारद , शिव , स्वायम्भुव आदि के लिये भी गम्य नहीं हैं , किन्तु वही वृन्दावन – नागरी गोपाङ्गनाओं के भावसे ही येन – केन प्रकार से लभ्य है । मुझ वही श्रीराधा – माधव का रहस्य दास्याधि कारोत्सव प्राप्त हो ; ( ऐसी वाञ्छा है । )


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 240 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 240

हे श्रीराधे ! हे रसदे !! तुम्हारी ही उच्छिष्ट अमृत – भोजी मैं तुम्हारे ही चरित्रों का श्रवण करती हुई , तुम्हारे ही कुञ्जालय में विचरण करती हुई , तुम्हारे ही दिव्य गुण – गणों का गान करती हुई एवं तुम्हारी ही रसमयी आकृति ( छबि ) का दर्शन करती हुई , शुद्ध काय , मन और वचन – द्वारा केवल तुम्हारी ही आश्रिता हूँ ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 241 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 241

जिनके युगल – नेत्र मानो क्रीड़ा करते हुए मीन हैं । देदीप्यमान अधर ही विद्रुम मणि हैं । पृथुल नितम्ब – द्वय ही दो द्वीप – विस्तार हैं । जिनके अन्तराल में काम – करि – शावक के कुम्भ – द्वय के आडम्बर ( घेरे ) के सदृश स्तन – द्वय हैं । जिनकी नाभि मानो गम्भीर भंवर और जो श्रीहरि के विपुल – प्रेमामृत की सिन्धु स्वरूपा हैं । मैं उन श्रीराधा के युगल चरणार- बिन्दों की परिचर्य्या की केवल योग्यता का ही अन्वेषण करती है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 242 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 242

श्रीवृन्दावन के निभृत – निकुञ्ज में विराजमान और अपने प्रियतम के प्रति प्रेमार्त्तिभार के उदय से विवश , अधीश्वरी श्रीराधा पुष्प – माला गुथने को शिक्षा देकर , मृदु – मृदु चन्दन पिसने का आदेश देकर , अद्भुत मोदकादि की रचना का विधान करके एवं कुल – प्रान्त – पर्यन्त – सम्मान की आज्ञा देकर परिचर्य्या- सम्बन्धी विस्तार – कार्य में मुझे कब दासी स्वीकार करेंगी ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 243 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 243

प्रेम – समुद्र – रस के उल्लास को तरुणिमा के आरम्भ के कारण जिनकी इष्टि – भङ्गिमा गम्भीर बन रही है । भङ्गिमा – सहित मृदु मुस्कान – अमृत की नव ज्योत्स्ना से जिनका श्रीमुख शोभित हो रहा है वही कन्दर्प – लीला – निधि स्वरूपा प्रीति श्रीराधा शोभायमान वृन्दावन की सुख – धाम कुञ्ज में प्रियतम के अङ्क में रति – कौतुक कर रही है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 244 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 244

अप्राकृत प्रेम – विलास वैभव की निधि , कैशोर – शोभा की निधि , विदग्धता – पूर्ण मधुर अङ्ग – भङ्गिमा को निधि , लावण्य – सम्पत्ति की निधि , महारास की निधि , काम – लीला की निधि , सौन्दर्य की एकमात्र सुधा – निधि एवं मधुपति श्रीलालजी को सर्वस्वभूत निधि श्रीराधा की जय हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 245 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 245

श्रीप्रियाजी के युगल कुचों में अपनी परछाईयाँ देखकर श्रीलालजी ने कहा – ‘ प्रिये ! तुम्हारे इन युगल कुचों में नील – कमल समूह की कान्ति लहरी को भी चुराने वाले दो किशोर शोभा पा रहे हैं और उनके इस अनिर्वचनीय रूप से मेरा सम्मोहन हो रहा है । अतएव अब आप मुझको अपनी सखी बना ले जिससे यह दोनों युवा हम दोनों तरुणियों का दृढ आलिङ्गन करेंगे । इस प्रकार श्रीहरि के मोह को देखकर प्रकट हुआ श्रीराधा का मृदु हास्य हमारी रक्षा करे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 246 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 246

है श्रीराधे ! सुख – सङ्ग महोत्सव में सम्मिलित होने पर भी प्रियतम के हृदय – स्थित कौस्तुभ – मणि में अपना मधुराकार प्रतिबिम्ब देखकर उत्पन्न क्रोध और शोक के कारण प्रियतम के हाथ को दूर हटाकर एवं ” अविनय ‘ ऐसा कहकर बाहर गयी हुई आपका अर्थ – पूर्ण निवेदन क्या मैं सुंनुगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 247 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 247

हे श्रीराधिके ! जो महामणियों की श्रेष्ठ माला एवं कुसुम – कलाप से शोभित है , जिसने महा मरकत मणि की प्रमा से ग्रथित होकर श्यामलता को भी मोहित कर रखा है और जो रसराज शृङ्गार का भी सिंहासन है , उस आपके कबरी – भार को मैं कब देखूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 248 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 248

हे श्रीराधे ! बीच – बीच में पुष्पों द्वारा खचित ; रत्नों की माला से बंधी हुई ; सघन परिमल युक्तः मालती – माल – भूषित , लम्बमान ; पीछे के भाग में महामणि माणिक्य – गुच्छ से शोभित एवं श्रीहरि के हाथों द्वारा रचित आपकी वेणी को मैं कब देखूगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 249 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 249

अहो श्रीराधे ! आपका सीमन्त – स्थित अद्भुत कनक – पट्ट ही सर्वतः जय जयकार को प्राप्त है । वह सुन्दर कनक – पट्ट ; ललित मणि – मुक्ताओं से जटित , रसावेश सम्पत्ति एवं समस्त काम – चरित्रों से पूर्ण है । स्वामिनि ! वह कनक – पट्ट आपकी विविध भङ्गिमाओं के द्वारा मानो हमारे चित्त को परम विस्मय और आनन्द प्रदान करता है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 250 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 250

 हे श्रीराधे ! आपके सीमन्त में यह नव – रुचिर सिन्दूर – रचित सुरेखा हमको मानो यह विज्ञापित करने के लिये ही विजय को प्राप्त हो रही है कि अनुरागामृत – रस के सुस्निग्ध प्रवाह रूप क्रिया – विशेष के द्वारा कुटिल एवं रुचिर श्याम को द्विधा करना ही उचित है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 251 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 251

 हे श्रीराधे ! उन मधुपति श्रीलालजी के नयन तुम्हारे मुख – चन्द्र के चकोर , ( तुम्हारे ) श्रीचरण – कमल के मधुकर जघन – पुलिन के श्रेष्ठ खञ्जन , अहो ! आपकी रस सरसो ( कुण्डिका ) के चञ्चल मीन और [ आपके ] मुख अटवी रूपी श्रीवपु के हरिण हो रहे हैं ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 252 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 252

 जिनके सुशीतल अङ्ग प्रत्यङ्गों को बारम्बार अपने करतलों से स्पर्श करके माधव घनीभूत आनन्दामृत – रस – समुद्र में मग्न हो जाते हैं , जो अपने प्रियतम के अङ्क ( गोद ) में विराजमान है , गाढ़ालिङ्गन के कारण जिनका सुन्दर चिबुक कुछ ऊपर उठ रहा है , प्रियतम ने जिसका चुम्बन भी कर लिया है , इस कारण जो और भी चञ्चल हो उठी में बह कमल – दल सुलोचना प्रेम – मूर्त्ति श्रीराधा हमारी रक्षा करे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 253 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 253

मैं श्रीराधा के नव – निभृत केलि – कुञ्ज – कानन में स्थित रहती हुई , सदा मधुरतर श्रीराधा के प्रिय यशों का तथा धनीभूत नव – नव आनन्द रस – दायी श्रीराधापति की कथाओं का बारम्बार गान करती हुई एवं श्रीराधा – पद – सुधा का सवंदा ध्यान करती हुई कब विवश हृदय होऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 254 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 254

[ प्रियतम – वियोग के भ्रम से कभी तो ] अनुपम रस स्त्रावी शब्द ” हे श्याम ! हे श्याम !! ” ऐसे जपती हैं , तो दूसरे ही क्षण प्रेमोत्कष्ठा मे रोमाञ्च सहित हो जाती हैं और उच्च – स्वर से आलाप करने लगती है । चित्तं सब ओर से उच्चाटन को प्राप्त है और बहुत दु : ख के साथ दिन के व्यतीत हो जाने की बाञ्च्छा करती हैं एवं जो [कभी – कभी] सूर्य के प्रति अत्यधिक क्रोधित हो उठती हैं । ऐसी [ विह्वला ] श्रीराधा हमारी रक्षा करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 255 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 255

कभी प्रियतम की रति – कला – वैभव – गति ( लीला – बिलास ) का गान करती हैं , तो कभी प्रियतम के सङ्ग होने वाले भावी विलास का ध्यान करती हैं । फिर कभी ” छोड़ो ! मुझे छोड़ो ? अरे बस : हो गया ?? ” इस प्रकार मधुर एवं मुग्ध प्रलाप करती हुई दिन व्यतीत करती हैं । ये श्रीराधा हमें कब आनन्दित करेंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 256 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 256

हे सर्वश्रेष्ठ स्वामिन् ! हे श्रीगोविन्द ! मैं आपसे बारम्बार यही प्रार्थना करती हूँ कि व्रज – वर – वधू – वृन्द – चूड़ामणि [श्रीप्रियाजी ] जिनकी पादाब्ज – लक्ष्मी आपको अपने कोटि – कोटि प्राणों से भी अधिक प्रिय है , मुझे अपने अद्भुत नित्य – नवीन कैङ्कर्य्य में स्वीकार करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 257 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 257

अहो ! यह जो मैं तरल – सुवर्ण – सदृश पीतच्छवि वसन एवं मयूर पिच्छ – रचित मुकुट – धारी नीलेन्दीवर – कान्ति किशोर श्रीकृष्ण को अपने हृदय में धारण करके उनका ध्यान करती है । इससे सुखमयी श्रीराधा प्रसन्न होकर दूर – दर्शी लोगों के पद – स्वरूप अपनी कैङ्कर्य्य – पदवी मुझे प्रदान करे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 258 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 258

उन शिखि – पिच्छ – मौलिधारी श्रीकृष्ण का ध्यान करती हुई , उनके नामों का कीर्तन करती हुई , उनके चरण – कमलों की नित्य – परिचर्या करती हुई , उनके मन्त्रराज का जप करती हुई एवं अपना परम अभीष्ट – श्रीराधा पद – दास्य अपने हृदय में धारण करती हुई , मैं कब उनके अनुग्रह से परम अद्भुत अनुरागोत्सव – शाली होऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 259 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 259

श्रीराधा और रसिकेन्द्र के रूप गुणादि समन्वित गीत – समूह का श्रवण करती हुई , उन [ श्रीलालजी के आगे सुन्दर गुञ्जाहार और मोर मुकुटादि समर्पण करती हुई एवं श्याम – सुन्दर द्वारा प्रेषित सुपारी , माला , नवीन – गन्ध ( वादि ) के द्वारा आपको प्रसन्न करती हुई , मैं कब आपके चरण – कमल की नखच्छटा रूप रस – सरसी में मग्न होऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 260 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 260

कहाँ तो निगम पदवी से सुदूर वर्तमान श्रीराधा और कहाँ उनके युगल – कुच – कमलों के मध्य में एकान्त भाव से निवास करने वाले श्रीकृष्ण ? अहो ! और कहाँ मैं अति अधम गर्हित – कर्मा , तुच्छ प्राणी ? इतने पर भी जो उनके नाम का स्फुरण होता है , वह निश्चय ही श्रीवृन्दावन की ही महिमा है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 261 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 261

जिन्होंने रसिक – तिलक श्रीलालजी के साथ केलि – विलास करना स्वीकार किया है , उन नव – रस – कला – कोमल – मूर्त्ति श्रीराधा का ध्यान करती हुई क्या में किसी प्रकार इस वृन्दावन में अपने शरीर को त्याग कर उनके चरण – कमल के आमोद – माधुर्य की अवधि – स्वरूपा दासी होऊंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 262 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 262

हा कालिन्दि ! आप मेरी निधि – स्वसपा स्वामिनि तथा प्रियतम से क्षालित हुई है । अर्थात् आप में ही उन्होंने जल – विहार किया है । अहा ! दिव्य एवं अद्भुत तरुलता गण ! तुम उनके सुकोमल कर – स्पर्श – भाजन हो । श्रीराधा – रति – गृह – निवासी हे शुको ! हे मृगी ! हे मयूरो !! बारम्बार आपकी अनुकम्पा – प्राप्ति के लिये प्रणति पूर्वक प्रार्थना करती है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 263 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 263

अहो ! जो जल – क्रीड़ा के आवेश से प्रक्षालित एवं अनुपम कुच कलशों में लगी हुई प्रेम – रस – प्रदायिनि केशर को वहन ( प्रवाहित ) करती रहती हैं । वही यह प्रफुल्लित नील – कमल की शोभा वाली कलिन्द – नन्दिनी यमुना मेरे इस मन्दीभूत हृदय को सदा सन्दीपित ( प्रकाशित ) करें ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 264 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 264

अद्भुत महिमा – पूर्ण मधुर वृन्दावन से जिनका सङ्ग है , वे भले ही क्रुर , पापी और सज्जनों के दर्शन – सम्भाषण के अयोग्य व्यक्ति हों किन्तु वे भी योगीन्द्र – गणों के सुन्दर दर्शनीय , सघन रसदायी और एकमात्र आनन्द की मूर्ति हैं । उनको वस्तुतया – उनके वास्तविक रूप में देखकर उनके प्रति मेरी परम आराध्य बुद्धि है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 265 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 265

जो श्रीराधा – चरणों में किङ्करी – भाव – पूर्ण हृदय वालो के लिये ही सम्यक् प्रकार से द्दष्टि – गत हो सकता है , जो उन [ श्रीराधा ] की कृपा के स्पर्श बिना कदापि हृदय में नहीं आता एवं जो एकमात्र पाप – भाजनों महापापियों – को भी प्रेमामृत – सिन्धु – सार – रस का दान करता है ! उस वृन्दावन को आश्चर्य्यगयी दुष्प्रवेश – महिमा मेरे हृदय में स्फुरित हो ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 266 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 266

मैं कब प्रेम – विवशाकृति होकर श्रीराधा – केलि के साक्षी प्रकट उज्ज्वल – अद्भुत – रस – पूर्ण एवं पवित्र वृन्दावन में निवास बसँगी ? तथा नेत्र – पिण्टों में स्थित तेजोमय निकुञ्ज की भावना करती हुई उसी के अनुसार उपयोगी अपने कोमल वपु का कब अवलोकन करूंगी ?


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 267 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 267

कर्मवशतः नरक में अथवा स्वर्ग में जहाँ – जहाँ मेरा जन्म हो अथवा परम पद में ही क्यों न चला जाऊं किन्तु वहाँ – वहाँ श्रीराधा – केलि कुञ्ज – मण्डली [ श्रीप्रिया , प्रियतम , सहचरि और वृन्दावन ] मेरे हृदय में विराजमान रहे ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 268 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 268

कहाँ तो मूढ – मति मैं ? और कहाँ परमानन्द का भी सार और रस रूप उनका श्रीनाम ? तथापि श्रीराधा के चरणानुभाव – कथन – द्वारा दोलाय- मान् मेरा वाक्य – समूह , कोमल कुञ्ज – पुञ्ज विलसित श्रीवृन्दावन में संलग्न और प्रायशः ( अधिकतर ) क्रीड़ा – परायण श्रीवृषभानु – नन्दिनी को पद – नख ज्योति की छटा से युक्त है ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 269 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 269

हे श्रीराधे ! आपका वैभव श्रुतियों , बुधजनों एवं स्वयं भगवान के लिये भी अन्वेषणीय है किन्तु फिर भी आपकी कृपा के द्वारा आपका स्तोत्र पद्य रूप करने के लिये मैं सहज योग्य बना दिया गया हूँ , अतएव हे स्नेह – जल – पूर्ण आकुल – नयनि ! सदापराधी एवं महत् मार्गों का भी विरोध करके एक मात्र तुम्हारी ही आशा रखने वाले मुझ पर अपनी अनिर्वचनीय कृपा – प्रीति का प्रसाद दीजिये ।


Shri Radha Sudha Nidhi Ji 270 | श्री हित राधा सुधा निधि जी श्लोक संख्या 270

 हे बुधजनो ! यदि आपको अद्भुत आनन्दोपभोग का लोभ हो तो इस ” रस – सुधा – निधि ” नामक स्तव को प्राप्त करके – [ ग्रहण करके ] कर्ण – कलशों से पान कीजिये ।

Shri Radha Sudha Nidhi Ji FaQ?

राधा सुधा निधि किसकी रचना है?

राधावल्लभ संप्रदाय के संस्थापक एक प्रसिद्ध आचार्य द्वारा रचित है। 

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