Shri Hit Chaurasi Ji Pad Sankhya 61 To 72 : श्री हित चौरासी जी II श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 61 से 72 Hindi Lyrics 

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Shri Hit Chaurasi Ji Pad Sankhya 61 To 72 | श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 61

Shri Hit Chaurasi Ji Pad Sankhya 61 To 72

आजु सखी बन में जु बने प्रंभु नाचते हैं ब्रज मंडन।
वैस किसोर जुवति अंसुन पर दियैं विमल भुज दंडन।।
कोंमल कुटिल अलक सुठि सोभित अबलंबित जुग गंडन।
मानहु मधुप थकित रस लंपट नील कमल के खंडन।।
हास विलास हरत सबकौ मन काम समूह विहंडन।
|श्री) हित हरिवंश करत अपनौ जस प्रकट अखिल ब्रह्मंडन॥61॥

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 62

खेलत रास दुलहिनी दूलहु।
सुनहु न सखी सहित ललितादिक, निरखि निरखि नैंननि किन फूलहु।।
अति कल मधुर महा मौंहन धुनि, उपजत हंस सुता के कूलहु।
थेई थेई वचन मिथुन मुख निसरत, सुनि सुनि देह दसा किन भुलहु।।
मृदु पद न्यास उठत कुंकुम रज, अदभूत बहत समीर दुकूलहु।
कबहुँ स्याम स्यामा दसनांचल- कच कुच हार छुवत भुज मूलहु।।
अति लावन्य, रूप, अभिनय, गुन, नाहिन कोटि काम समतूलहु।
भृकुटि विलास हास रस बरषत (जै श्री) हित हरिवंश प्रेम रस झूलहु।।62।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 63

मोहन मदन त्रिभंगी। मोहन मुनि मन रंगी।।
मोहन मुनि सघन प्रगट परमानँद गुन गंभीर गुपाला।
सीस किरीट श्रवण मनि कुंडल उर मंडित बन माला।।
पीतांबर तन धातु विचित्रित कल किंकिनि कटि चंगी।
नख मनि तरनि चरन सरसीरूह मोहन मदन त्रिभंगी।।
मोहन बैंनु बजावै। इहिं रव नारि बुलावै।।
आईं ब्रज नारि सुनत बंसी रव गृह पति बंधु विसारे।
दरसन मदन गुपाल मनोहर मनसिज ताप निवारे।।
हरषित बदन बैंक अवलोकन सरस मधुर धुनि गाव।
मधुमय श्याम समान अधर धरे मोहन बैंनु बजावे।।
रास रचा बन माँही। विमल कलप तरु छाँहीं।।
विमल कलपतरु तीर सुपेशल सरद रैंन वर चंदा।
सीतल मंद सुगंध पवन बहै तहाँ खेलत नंद नंदा।।
अदभुत ताल मृदंग मनोहर किंकिनि शब्द कराहीं।
जमुना पुलिन रसिक रस सागर रास रच्यो बन माँहि।।
देखत मधुकर केली। मोहे खग मृग बेली।।
मोहे मृगधैंनु सहित सुर सुंदरि प्रेम मगन पट छूटे।
उडगन चकित थकित ससि मंडल कोटि मदन मन लूटे।।
अधर पान परिरंभन अति रस आनँद मगन सहेली।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक सचु पावत देखत मधुकर केली।।63।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 64

बैंनु माई बाजै बंसीवट।
सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।
दसननि कुंद कली छवि लज्जित लज्जित कनक समान पीत पट।।
मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत करत विनोद संग बालक भट।
दास अनन्य भजन रस कारन हित हरिवंश प्रकट लीला नट।।64।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 65

मूल–मदन मदन धन निकुंज खेलत हरि, राका रुचिर सरद रजनी।
यमुना पुलिन तट सुरतरु के निकट, रचित रास चलि मिलि सजनी।।
वाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग; तैं न श्रवन सुन्यौ बैंनु बजनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु राधिका रमन, मोकौं भावै माई जगत भगत भजनी।।65।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 66

विहरत दोऊ प्रीतम कुंज।
अनुपम गौर स्याम तन सोभा वन वरषत सुख पुंज।।
अद्भुत खेत महा मनमथ कौ दुंदुभि भूषन राव।
जूझत सुभट परस्पर अँग अँग उपजत कोटिक भाव।।
भर संग्राम अमित अति अबला निद्रायत काले नैन।
पिय के अंक निसंक तंक तन आलस जुत कृत सैंन
लालन मिस आतुर पिय परसद उरु नाभि ऊरजात।
अद्भुत छटा विलोकि अवनि पर विथकित वेपथ गात।।
नागरि निरखि मदन विष व्यापित दियौ सुधाधर धीर।
सत्वर उठे महामधु पीवत मिलत मीन मिव नीर।।
अवहीं मैं मुख मध्य विलोके बिंबाधर सु रसाल।
जागृत त्यौं भ्रम भयौ परयौ मन सत मनसिज कुल जाल।।
सकृदपि मयि अधरामृत मुपनय सुंदरि सहज सनेह।
तव पद पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह।।
प्रिया कहति कहु कहाँ हुते पिय नव निकुंज वर राज।
सुंदर वचन वचन कत वितरत रति लंपट बिनु काज।।
इतनौं श्रवन सुनत मानिनि मुख अंतर रहयौ न धीर।
मति कातर विरहज दुख व्यापित बहुतर स्वास समीर।।
(जै श्री) हित हरिवंश भुजनि आकरषे लै राखे उर माँझ।
मिथुन मिलत जू कछुक सुख उपज्यौ त्रुटि लव मिव भई साँझ।।66।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 67

रुचिर राजत वधू कानन किसोरी।
सरस षोडस कियें, तिलक मृगमद दियें,
मृगज लोचन उबटि अंग सिर खोरी।।
गंड पंडीर मंडित चिकुर चंद्रिका,
मेदिनि कबरि गुंथित सुरंग डोरी।
श्रवण ताटंक कै. चिबुक पर बिंदु दै,
कसूँभी कंचुकी दुरै उरज फल कोरी।।
वलय कंकन दोति, नखन जावक जोति,
उदर गुन रेख पट नील कटि थोरी।
सुभग जघन स्थली क्वनित किंकिनि भली,
कोक संगीत रस सिंधु झक झोरी।।
विविध लीला रचित रहसि हरिवंश हित;
रसिक सिरमौर राधा रमन जोरी।
भृकुटि निर्जित मदन मंद सस्मित वदन,
किये रस विवस घन स्याम पिय गोरी।।67।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 68

रास में रसिक मोहन बने भामिनी।
सुभग पावन पुलिन सरस सौरभ नलिन,
मत्त मधुकर निकर सरद की जामिनी।।
त्रिविध रोचक पवन ताप दिनमनि दवन,
तहाँ ठाढ़े रमन संग सत कामिनी।
ताल बीना मृदंग सरस नाचत सुधंग;
एक ते एक संगीत की स्वामिनी।।
राग रागिनि जमी विपिन वरसत अमी,
अधर बिंबनि रमी मुरलि अभिरामिनी।
लाग कट्टर उरप सप्त सुर सौं सुलप
लेति सुंदर सुघर राधिका नामिनी।।
तत्त थेई थेई करत गांव नौतन धरत,
पलटि डगमग ढरति मत्त गज गामिनी।
धाइ नवरंग धरी उरसि राजत खरी;
उभय कल हंस हरिवंश घन दामिनी।।68।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 69

मोहिनी मोहन रंगे प्रेम सुरंग,
मंत्र मुदित कल नाचत सुधगे।
सकल कला प्रवीन कल्यान रागिनी लीन,
कहत न बनै माधुरी अंग अंगे।।
तरनि तनया तीर त्रिविध सखी समीर।
मानौं मुनी व्रत धरयौ कपोती कोकिला कीर।।
नागरि नव किशोर मिथुन मनसि चोर।
सरस गावत दोऊ मंजुल मंदर घोर।।
कंकन किंकिनि धुनि मुखर नूपुरनि सुनि।
(जै श्री) हित हरिवंश रस वरषत नव तरुनी ॥69॥

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 70

आजु सँभारत नाँहिन गोरी।
फूली फिर मत्त करिनी ज्यौं सुरत समुद्र झकोरी।।
आलस वलित अरुन धूसर मषि प्रगट करत दृग चोरी।
पिय पर करुन अमी रस बरषत अधर अरुनता थोरी।।
बाँधत भृंगं उरज अंबुज पर अलकनि बंध किसोरी।
संगम किरचि किरचि कंचुकि बँध सिथिल भई कटि डोरी।।
देति असीस निरखि जुवती जन जिनकें प्रीति न थोरी।
(जै श्री) हित हरिवंश विपिन भूतल पर संतत अविचल जोरी।।70।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 71

स्याम सँग राधिका रास मंडल बनी।
बीच नंदलाल ब्रजवाल चंपक वरन,
ज्यौंव घन तडित बिच कनक मरकत मनी।।
लेति गति मान तत्त थेई हस्तक भेद,
स रे ग म प ध नि ये सप्त सुर नंदिनी।
निर्त रस पहिर पट नील प्रगटित छबी,
वदन जनु जलद में मकर की चंदिनी।।
राग रागिनि तान मान संगीत मत,
थकित राकेश नाम सरद की जामिनी।
(जै श्री) हित हरिवंश प्रभु हंस कटि केहरी,
दूरि कृत मदन मद मत्त गज गामिनी।।71।।

श्री हित चतुरासी जी पद संख्या 72

सुंदर पुलिन सुभग सुख दाइक।
नव नव घन अनुराग परस्पर खेलत कुँवर नागरी नांइक।
सीतल हंस सुता रस बिचिनु परसि पवन सीकर मृदु वरषत।
वर मंदार कमल चंपक कुल सौरभ सरसि मिथुन मन हरषत।
सकल सुधंग विलास परावधि नाचत नवल मिले सुर गावत।
मृगज मयूर मराल भ्रमर पिक अदभुत कोटि मदन सिर नावत।
निर्मित कुसुम सैंन मधु पूरित भजन कनक निकुंज विराजत।
रजनी मुख सुख रासि परस्पर सुरत समर दोऊ दल साजत।।
विट कुल नृपति किसोरी कर धृत, बुधि बल नीबी बंधन मोचत।
‘नेति नेति’ वचनामृत बोलत प्रनय कोप प्रीतम नहिं सोचत ।
(जै श्री) हित हरिवंश रसिक ललितादिक लता भवन रंध्रनि अवलोकत।
अनुपम सुख भर भरित विवस असु आनँद वारि कंठ दृग रोकत।।72।।

| Shri Hit Chaurasi Ji Pad Sankhya 61 To 72 End |

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