Shri Hit Sfut Vani Sampurn Arth Sahit Shlok 1 To 24(Hita Safut Vani) | श्री हित स्फुट वाणी सम्पूर्ण अर्थ सहित श्लोक 1 To 24

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हित स्फुट वाणी(Hit Sfut Vani) श्री वृंदावन धाम के रसिक संत श्री हित हरिवंश महाप्रभु द्वारा विभिन्न पदों एवं दोहों का मिश्रण है।

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Hit Sfut Vani Shlok 1 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (1)

Shri Hit Sfut Vani Sampurn Arth Sahit Shlok 1 To 24

द्वादश चन्द्र, कृतस्थल मंगल, बुद्ध विरुद्ध, सुरु – गुरु बंक।
यद्दि दसम्म भवन्न भृगुसुत, मन्द सुकेतु जनम्म के अंक॥ [1]
अष्टम राहु, चतुर्थ दिवामणि, तौ हरिवंश करत्त न संक।
जो पै कृष्ण-चरण मन अर्पित, तौ करि हैं कहा नवग्रह रंक॥ [2]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (1)



व्याख्याः – श्रीहित हरिवंश महाप्रभु कहते हैं कि जन्मकुंडली में चाहे बारहवें चन्द्रमा, चौथे मंगल, विरुद्ध बुद्ध, वृहस्पति वक्री, दशवें शुक्र, केतु और शनि लग्न में हों ।[1]
आठवें राहु और चौथे सूर्य पड़े हों तो भी शंका नहीं करनी चाहिये। क्योंकि जब श्रीकृष्ण के चरणों में मन अर्पित हो चुका तब ये नवग्रह रंक क्या करेंगे? [2]


Hit Sfut Vani Shlok 2 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (2)

भानु दसम्म, जनम्म निसापति, मंगल – बुद्ध सिवस्थल लीके।
जो गुरु होंय धरम्म भवन्न के तौ भृगुनंद सुमंद नवीके॥ [1]
तीसरो केतु समेत बिधुग्रस तौ हरिवंश मन-क्रम फीके।
गोविन्द छाँड़ि भ्रमंत दसों दिस तौ करिहैं का नवग्रह नीके॥ [2]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (2)



भूमिकाः
इस सवैये में सम्पूर्ण शुभ माने जाने वाले ग्रहों का उल्लेख करके भक्ति शून्य व्यक्ति के लिए उनकी व्यर्थता प्रतिपादित की गई है।

व्याख्याः
 दसवें सूर्य, जन्म के चन्द्रमा, मंगल और बुद्ध ग्यारहवें, नवम वृहस्पति और शुक्र नवम अच्छे स्थान में अर्थात् तीसरे-छटवें, ग्यारहवें शनि तथा राहु और केतु तीसरे स्थान में कुंडली में पड़े हों तो भी जो व्यक्ति गोविन्द को छोड़ के दसों दिशाओं में भ्रमता डोलता है, उसकी उत्तम ग्रह कुछ भी भलाई नहीं कर सकते।


Hit Sfut Vani Shlok 3 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (3)

ना जानो छिन अंत कवन बुधि घटहि प्रकासित। [1]
छुटि चेतन जु अचेत तेऊ मुनि भये विष वासित॥ [2]
पाराशर सुर-इन्द्र कल्प, कामिनी मन फंद्या।[3]
परि व देह दुख-द्वन्द्व कौन क्रम-काल निकंद्या॥[4]
इहि डरहि डरपि हरिवंश हित जिनहि भ्रमहि गुण-सलिल पर। [5]
जिहि नामनि मंगल लोक तिहु सु हरि-पद भज न विलंब कर॥ [6]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (3)



व्याख्या:- यह नहीं जाना जा सकता कि किस क्षण के समाप्त होते होते कौन सी बुद्धि मन में प्रकाशित हो जायेगी। [1]
क्योंकि जो मुनिगण साधन करते-करते अचेतन जैसे बन गये वे भी अवसर आने पर विष व्याप्त हो गये (मोह ग्रसित हो गये)। [2]
पाराशर एवं इंद्रदेव के समान व्यक्तियों के मन को कामिनियों ने अपने फंदे में फँसा लिया। [3]
शरीर के पीछे दुख-द्वन्द्व लगे हुये हैं और काल के क्रम का छेदन कौन कर सका है ? [4]
श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि इस भय से डरकर तू त्रिगुण रूपी जल पर भ्रमण करना छोड़ दे और जिनके नाम में तीनों लोकों का मंगल करने की सामर्थ्य है उन श्रीहरि के चरणों का अविलम्ब भजन कर। [5 & 6]


Hit Sfut Vani Shlok 4 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (4)

तू बालक नहिं, भर्यौ सयानप काहे कृष्ण भजत नहिं निके। [1]
अतिव सुमिष्ट तजिव सुरभिन-पय मन बंधित तंदुल-जल फीके॥ [2]
(जैश्री) हित हरिवंश नर्क गति दुरभर यम द्वारै कटियत नक छीके। [3]
भव-अज कठिन, मुनिजन दुर्लभ, पावत क्यौं जु मनुज-तन भीके॥ [4]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (4)



तू बालक नहीं है और चतुरता से भरा हुआ है तो श्रीकृष्ण को भली प्रकार क्यों नही भजता? [1]
तू गाय के सुमधुर दूध को छोड़कर चावल के फीके पानी में अपने मन को बाँध रहा है! [2]
श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि नर्क की गति अत्यन्त कठिन है क्योंकि यम के द्वार पर छींकने पर नाक काटी जाती है (थोड़े से अपराध में कड़ा दंड सहन करना पड़ता है।) [3]
तू यह तो विचार कर कि शिवजी एवं ब्रह्मा को अप्राप्य तथा मुनिजनों को कठिनाई से मिलने वाला यह मनुष्य शरीर तू भीख में कैसे पा जायगा ? [4]
(इसको प्राप्त करने का कोई साधन किये बिना यह तुझको कैसे मिल जायगा ?)


Hit Sfut Vani Shlok 5 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (5)

चकई! प्रान जु घट रहैं, पिय-बिछुरन्त निकज्ज।
सर-अन्तर अरु काल निशि, तरफि तेज घन गज्ज।।
तरिफ तेज घन गज्ज, लज्ज तुहि वदन न आवै।
जल-विहून करि नैंन, भोर किहिं भाय दिखावै।।
(जैश्री) हित हरिवंश विचारि, वाद अस कौंन जु बकई।
सारस यह सन्देह, प्रान घट रहैं जु चकई।।

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (05)



निज रसिकों के सिद्धांत एवं वृन्दावन रस के नित्य विहार में श्री राधा को स्वकीया और परकीया दोनों से पृथक माना जाता है। यहाँ एक क्षण का वियोग प्रियतम एवं प्रेयसी के प्राण हरण कर लेता है, एवं नित्य संयोग होते हुए भी नित्य उत्कंठा एवं रस  बढ़ता रहता है। श्री प्रिया प्रियतम नित्य साथ होते हुए भी ऐसे मिलते हैं जैसे इससे पहले कभी नहीं मिले एवं नित्य लीला नवनवायमान है।

व्याख्या:-

सारस चकई के प्रेम की भर्त्सना करता हुआ कहता है कि हे चकई, प्रियतम के बिछड़ने पर निरर्थक बने हुये तेरे प्राण शरीर में कैसे रहे आते हैं ? बीच में सरोवर का अंत, काल की सी रात्रि, बिजली का चमकना और मेघ का गरजना सहने के बाद सवेरे आँसू पोंछकर तू अपने प्रियतम से मिलने पर किस प्रेम का प्रदर्शन करती है ? क्या तुझे अपने इस व्यवहार पर लज्जा नहीं आती? श्री हित हरिवंश कहते हैं कि यह सब विचार कर कौन व्यर्थ में बकवास करे। नित्य संयोगी सारस (नित्य विहार) के मन में तो यह संदेह है कि वियुक्त होने पर चकई के प्राण उसके शरीर में रहते ही कैसे हैं?


Hit Sfut Vani Shlok 6 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (6)

सारस सर बिछुरंत कौ जो पल सहय सरीर।
अगिनि – अनंग जु तिय भखै तौ जानै पर – पीर॥
तौ जानै पर पीर धीर धरि सकहि बज्र तन।
मरत सारसहिं फूटि पुनि न परचौ जु लहत मन॥
( जै श्री ) हित हरिवंश विचारि प्रेम विरहा बिनु वा रस।
निकट कंत नित रहत मरम कह जानै सारस॥

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (6)



भूमिकाः – (सारस के आक्षेप को सुनकर चकई अपने मन में विचार करती है कि) सारस का शरीर यदि सरोवर के अन्तर को एक क्षण के लिए भी सहन कर ले और उसकी पत्नी लक्ष्मणा को यदि काम की अग्नि का कठिन अनुभव करना पड़े तभी ये पराई पीड़ा को जान सकता है। इस स्थिति में कोई बज्र के समान कठोर शरीर वाला ही धैर्य धारण कर सकता है। सारस तो बिछड़ते ही मर जाता है और विरह का अनुभव प्राप्त करने का अवसर ही उसको नहीं मिलता। श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि प्रेम-विरह के बिना शृङ्गार रस की स्थिति विचारणीय (संदेहास्पद) बन जाती है। अपने प्रिय के नित्य निकट रहने वाला सारस इस मर्म को क्या जानै।

[ इस प्रकार संयोग और वियोग, प्रेम के दोनों रूप अपूर्ण है। इन दिनों से विलक्षण नित्य विहार रस [‘वृन्दावन-रस] ही संयोग और वियोग दोनों प्रेम-धर्मों को सूक्ष्म रूप से धारण किये रहने के कारण प्रेम का पूर्ण रूप है।

संयोग की परावधि तो यह है कि दोनों (प्रिया-प्रियतम) एक क्षण के लिए भी वियुक्त नहीं होते और वियोग की सीमा यह है कि नित्य संयुक्त रहने पर भी अपने को अनमिले मानते हैं और अकुलाते हैं। जहां संयोग ही विरह रूप हो उसका वर्णन असंभव है।]
श्री भगवत रसिक जी महाराज ने लिखा है:
“मिले रहत मानो कबहूँ मिलेंना,
भगवत रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समझ सकें न”

नित्य विहार रस में प्रिया प्रियतम नित्य मिले हुए रहते हैं फिर भी उन्हें लगता है कि उनका कभी मिलन नहीं हुआ, एवं उनके मिलन की ललक नित्य बढ़ती रहती है ।श्री भागवत रसिक कहते हैं कि रसिक की बातें केवल रसिक ही समझ सकते हैं अन्य नहीं ।]


Hit Sfut Vani Shlok 7 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (7)

(छप्पय)
तैं भाजन कृत जटित विमल चंदन कृत इन्धन ।
अमृत पूरि तिहे मध्य करत सरषप – खल रिंधन ॥ [1]
अद्भुत धर पर करत कष्ट कंचन हल वाहत ।
बार करत पाँवार मंद बोबन विष चाहत ॥ [2]
(जैश्री) हित हरिवंश विचारि कै मनुज देह गुरु-चरण गहि ।
सकहि तौ सब परपंच तजि कृष्ण-कृष्ण-गोविन्द कहि ॥ [3]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री स्फुट वाणी (7)



जैसे कोई विविध रत्नों से जटित स्वर्णपात्र में अमृत भरकर उसे चूल्हे पर चढ़ाकर चन्दन की लकड़ी से अग्नि प्रज्बलित करके उसमें सरसों की खली को रांधे, अर्थात इस दुर्लभ मनुष्य देह से असत्य विषय सुख प्राप्त करना चाहे, तो वह पुरुष मन्दमति नहीं तो क्या कहा जाएगा ? [1]

यदि अद्भुत भूमि में कष्ट करके, कंचन के हल से उसे जोतकर, उसमें मूँगे की बाड़ लगाकर, उसमें तुम विष बोना चाहते हो तो वो मूढ़ता नहीं तो क्या है । [2]

श्री हित हरिवंश कहते हैं कि इसलिए इस मानवदेह का दुरुपयोग मत करो, गुरु-चरणों का आश्रय लेकर, समस्त प्रपंचों का त्याग कर, श्री कृष्ण का भजन करो । [3]


Hit Sfut Vani Shlok 8 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (8)

तातैं भैया मेरी सौं कृष्ण-गुण संचु। [1]
कुत्सित वाद विकारहिं परधन सुनु सिख मन्द पर-तिय बंचु। [2]
मनिगन-पुंज व्रजपति छाँड़त हित हरिवंश कर गहि कंचु॥ [3]
पाये जान जगत में सब जन कपटी कुटिल कलियुग-टंचु। [4]
इहि-परलोक सकल सुख पावत, मेरी सौं कृष्ण-गुण संचु॥ [5]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, स्फुट वाणी (8)



श्री हित हरिवंश महाप्रभु कह रहें हैं “अरे मन्दमति! तुम व्यर्थ ही के घृणित वाद-विवाद में क्यों पड़े हो? दूसरों के साथ वाद-विवाद करने, पराये धन एवं पराई स्त्री से सदा बचते रहना चाहिये। हे भाई! तुझे मेरी शपथ. इन सबसे मन हटाकर श्री कृष्ण के गुणों का संचय कर। [1 & 2]
मणियों के पुंज तुल्य बल्कि उससे भी कोटि गुणित महामूल्यवान् परम निधि श्री कृष्ण को छोड़कर, धन-सम्पत्ति का संग्रह करना मानो काँच जेसी निरर्थक वस्तु का संग्रह करना है। [3]
तुम्हें इस बात का बोध नही है कि तुम्हें प्राप्त अर्थात् तुम से सम्बन्धित सभी लोग कलिमल ग्रसित हैं। वे व्यवहार तो अति आत्मीयता और प्रेम का करते हैं परन्तु उनके मन में कपटता और कुटिलता भरी हुई है। [4]
तू इस लोक और परलोक के समस्त सुखो को सहज रूप से ही प्राप्त कर लेगा, मेरी बात मान और श्री कृष्ण के मंगलमय गुणों का संचय कर, तुम्हें मेरी शपथ। श्री कृष्ण के नाम-रूप, लीला-चिंतन से तुम्हारा परलोक तो सुधरेगा ही, इसलोक में भी सुख-शान्ति-यश-धन-वैभव किसी प्रकार का अभाव नहीं रहेगा।” [5]


Hit Sfut Vani Shlok 9 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (9)

मानुष कौ तन पाइ भजौ ब्रजनाथ कौं । [1]
दर्बी लैकें मूढ़ जरावत हाथ कौं।। [2]
(जय श्री) हित हरिवंश प्रपंच विषय रस – मोह के। [3]
(हरि हाँ) बिनु कंचन क्यों चलैं पचीसा लोह के ।। [4]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (09)



व्याख्याः –
मनुष्य का शरीर पाकर ब्रजनाथ का भजन करो। [1]
अरे मूढ़, तू कलछी के समान मनुष्य शरीर पाकर भी संसार की अग्नि में अपने हाथ को जला रहा है। [2]
श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि संसार के सम्पूर्ण विषयों के रस मोह जनित हैं। [3]
ये सब लोहे के सिक्के के समान हैं और तू यह बता कि भगवद् प्रेम रूपी सुवर्ण के बिना ये खोटे सिक्के कैसे चलेंगे ? [4]


Hit Sfut Vani Shlok 10 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (10)

(राग बिलावल)
तू रति रंगभरी देखियत है श्री राधे,
रहसि रमी मोहन सों व रैन। [1]
गति अति सिथिल, प्रगट पलटे पट,
गौर अंग पर राजत अैन॥ [2]
जलज कपोल ललित लटकति लट,
भृकुटि कुटिल ज्यौं धनुष धृत मैन। [3]
सुंदरी रहिव कहिव कंचुकी कत,
कनक-कलश कुच बिच नख दैन। [4]
अधर-बिंब दल मलित आलस जुत,
अरु आनंद सूचत सखि नैन। [5]
(जैश्री) हित हरिवंश दुरत नहिं नागरी,
नागर मधुप मथत सुख-सैन॥ [6]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (10)



हे श्रीराधे, आज तुम प्रेम-रंग भरी दिखलाई दे रही हो, मालूम होता है कि तुमने अपने मोहन प्रियतम के साथ रात्रि में एकान्त रमण किया है। [1]

तुम्हारी गति अत्यन्त शिथिल हो रही है। तुमने अपने वस्त्र (नीलाम्बर) के बदले में प्रियतम का वस्त्र (पीताम्बर) प्रकट से ओढ़ रखा है जो तुम्हारे गौर अंग पर अत्यन्त शोभायमान हो रहा है। [2]

तुम्हारे कमल के समान गुलाबी कपोलों पर सुन्दर लटें लटक रही हैं और तुम्हारी बंक भृकुटि कामदेव के धनुष के समान जान पड़ती हैं। [3]

हे सुन्दरि, तनिक ठहरो और यह बताओ कि तुम्हारी कंचुकी कहाँ है और तुम्हारे सुवर्ण-कलश के समान कुचों पर नख-चिन्ह क्यों लग रहे हैं? [4]

तुम्हारे बिंब के समान लाल अधर दलमलित हो रहे हैं और हे सखी, तुम्हारे नेत्र आलस्य पूर्ण होते हुये भी आनन्द का सूचन कर रहे हैं। [5]

सखी भावापन्न श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि हे नागरि, चतुर मधुप तुम्हारे प्रियतम ने सुख शैया पर बल पूर्वक तुम्हारा रस ग्रहण किया है, यह बात छिपाने से भी नहीं छिप रही है। [6]


Hit Sfut Vani Shlok 11 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (11)

आनँद आजु नंद के द्वार ।
दास अनन्य भजन – रस कारन, प्रगटे लाल मनोहर ग्वार ॥ [1]
चंदन सकल धेनु तन मंडित कुसुम दाम रंजित आगार । [2]
पूरन कुंभ बने तोरन पर बीच रुचिर पीपर की डार ॥ [3]
युवति-यूथ मिलि गोप विराजत, बाजत पणव मृदङ्ग सुतार । [4]
(जै श्री) हित हरिवंश अजिर वन वीथिनु, दधि मधि दूध हरद के खार ॥ [5]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (11)



आज नंद के द्वार पर आनन्द छाया हुआ है । वहाँ अनन्य दासों के भजन-रस की निष्पत्ति के लिए मनोहर ग्वाल पुत्र प्रकट हुये हैं । [1]

नन्दगाँव की सब गायों के शरीर चन्दन से मण्डित किये गये हैं और नन्द-भवन फूलों की बन्दनवार से सुशोभित है । [2]

भवन के द्वार पर जल पूर्ण कलश शोभायमान हैं जिनके बीच में पीपल की सुन्दर डाल लगी हुई है । [3]

युवतियों के यूथ सहित गोपगण वहाँ विराजमान हैं एवं पणव और मृदंग में सुन्दर ताल बज रही है । [4]

श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि भवन के आँगन में एवं गाँव की गलियों में हल्दी मिश्रित दूध दही के बहने से गढ़े भर गये हैं । [5]


Hit Sfut Vani Shlok 12 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (12)

(राग बिलावल एवं धनाश्री)
मोहन लाल के रंग राँची।

मेरे ख्याल परौ जिनि कोऊ, बात दसौं दिसि माँची॥ [1]

कंत अनंत करौ जो कोऊ, बात कहौं सुनि साँची।
यह जिय जाहु भलैं सिर ऊपर, हौंऽव प्रगट ह्वै नाँची॥ [2]

जागत शयन रहत उर ऊपर, मनि कंचन ज्यौं पाँची।

(जै श्री) हित हरिवंश डरौं काके डर, हौं नाहिन मति काँची॥ [3]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्रीहित स्फुट वाणी (12)

प्रस्तुत पद में सखि भावापन्न श्री हित हरिवंश जी कहते हैं कि मैं मोहन लाल के रंग में रँगी हुई हूँ।अथवा मोहन लाल जिस रंग में रँगे हैं उसी श्री श्यामा जू के रंग में मैं भी रंगी हुई हूँ। मेरे चित्त में अब किसी अन्य के लिये स्थान नहीं है, और यह बात अब सर्वत्र विख्यात हो चुकी है, किसी से छिपी नहीं है। [1]

कोई कितने भी पति करले तात्पर्य किसी की प्रियता संसार में कितनी भी जगह बटी रहे किन्तु मेरी प्रियता तो केवल श्री राधा प्राणनाथ मोहन लाल के प्रति है, मैं यह सत्य-सत्य अपने हृदय की बात कहती हूँ। उनके प्रेम में भले ही मेरे प्राण चले जायें, मुझे शिरोधार्य है और इस बात को मैं अतिशय आनन्दपूर्वक सबके सम्मुख स्वीकार करती हूँ। [2]

जागते-सोते प्रत्येक अवस्था में मेरा हृदय इन्द्रनीलमणि श्याम एवं कंचन तनी श्यामा से मणि कंचनवत् जटित रहता है। श्रीहित हरिवंश जी कहते हैं अब मुझे किसी से भी डरने की आवश्यकता नहीं क्योंकि मेरी बुद्धि कच्ची नहीं है अपितु भली भाँति परिपक्व, स्थिर और सुदृढ़ है। [3]


Hit Sfut Vani Shlok 13 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (13)

मैं जु मोहन सुन्यौ बेनु गोपाल कौ। [1]
व्योम मुनि यान, सुन नारि सुनि चकित भई,
कहत नहीं बनत कछु भेद यति ताल कौ॥ [2]
श्रवन कुंडल छुरित, रूरत कुंतल ललित,
रूचिर कस्तूरि चंदन तिलक भाल कौ। [3]
चंद-गति मंद भई, निरखि छवि काम गहि,
देखि हरिवंश हित वेष नंदलाल कौ॥ [4]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (13)



मैंने मदनगोपाल के मोहक वेणुनाद को सुना है। [1]

इस अद्भुत नाद को सुनकर आकाश में स्थित मुनियानों (विमानों) में बैठी हुई देवताओं की स्त्रियाँ थकित हो गईं। अतः इस नाद की यति और ताल का भेद कहना सम्भव नहीं है। [2]

(वेणुवादक श्रीनंदलाल के) श्रवण कुण्डलों से भूषित हैं, उनकी अलकें छूट रही हैं, और कस्तूरी मिश्रित चंदन का सुन्दर तिलक उनके भाल पर सुशोभित है। [3]

श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि नन्दलाल का यह वेष देखकर चन्द्र की गति मन्द हो गई है और कामदेव की छवि क्षीण हो गई है।
(चन्द्र मन का देवता है, नंदलाल के दर्शन से उसकी गति मन्द होने का अर्थ यह है कि मन निश्चल हो गया है। कामदेव मनोज है, उसकी छबि क्षीण हो जाने का तात्पर्य यह है कि नन्दलाल के दर्शन से मत्त में काम के प्रति आकर्षण नष्ट हो गया है।) [4]


Hit Sfut Vani Shlok 14 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (14)

आज तू ग्वाल गोपाल सों खेलि री। [1]
छाँड़ि अति मान, बन चपल चलि भामिनी,
तरु तमाल सों अरुझि कनक-की-बेलि री॥ [2]
सुभट सुंदर ललन, ताप परबल दमन,
तू व ललना रसिक काम की केलि री। [3]
बेनु कानन कुनित, श्रवन सुंदरी सुनत,
मुक्ति सम सकल सुख पाय पग पेलि री॥ [4]
विरह-व्याकुल नाथ गान गुन जुवति तव,
निरखि मुख, काम कौ कदम अबहेलि री॥ [5]
सुनत हरिवंश हित, मिलत राधा-रमन,
कंठ भुज मेलि, सुख-सिंधु रस झेलि री॥ [6]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (14)



सखी भावापन्न श्री हित हरिवंश श्रीराधा से कहते हैं “आज तुम गोपकुमार मदन गोपाल के साथ क्रीड़ा करो।” [1]

हे भामिनी, अपना अत्यन्त मान छोड़कर शीघ्र वन में चलो और वहाँ तरु तमाल के समान श्याम वर्ण अपने प्रियतम से कनक-लता के समान गाढ़ आलिंगन में आबद्ध हो जाओ। [2]

सुन्दर ललन श्रीश्यामसुन्दर महायोद्धा के समान कामदेव की सेना का दमन करने वाले हैं और है ललना, तुम रसिकतामयी काम-कलि हो।
(श्रीराधावल्लभीय रस रीति में श्रीश्यामसुन्दर भोक्ता और श्रीप्रिया भोग्य हैं। यहाँ सुन्दर ललन को कामदेव की सेना को दमन करने वाला बतलाकर उनका भोक्ता स्वरूप एवं श्रीराधा को काम की केलि कहकर भोग्य स्वरूप ध्वनित किया गया है और इस प्रकार दोनों की परस्पर पूरकता सिद्ध की गई है।) [3]

हे सुन्दरि, वृन्दाकानन में वेणु बज रही है। उसको सुनकर मुक्ति के समान पूर्ण सुख को भी पैरों से ठेल दो। (और चलकर प्रियतम से मिलो।) [4]

हे युवति, तुम्हारे नाथ श्रीश्यामसुन्दर विरह से व्याकुल हो रहे हैं और तुम्हारा गुणगान कर रहे हैं। तुम उनका दर्शन करके उनकी विरह वेदना को दूर कर दो। [5]

सखी भावापन्न श्री हित हरिवंश कहते हैं कि यह सुनते ही श्रीराधा अपने प्रियतम को मिल गईं और दोनों परस्पर कंठों में भुजा डालकर सुख सिन्धु में निमग्न हो गये। [6]


Hit Sfut Vani Shlok 15 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (15)

वृषभानु नंदिनी राजति हैं।
सुरत-रंग-रस भरी भामिनी, सकल नारि सिर गाजति हैं॥ [1]
इत-उत चलति, परत दोऊ पग, मद-गयंद गति लाजति हैं।
अधर निरंग, रंग गंडनि पर, कटक काम कौ साजति हैं॥ [2]
उर पर लटक रही लट कारी, कटिव किंकिनी बाजति हैं।
(जैश्री) हित हरिवंश पलटि प्रीतम पट, जुवति जुगति सब छाजति हैं॥ [3]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (15)



श्रीवृषभानुनन्दिनी सुशोभित हो रही हैं।  सुरत के रंग-रस से भरी हुई ये भामिनी सम्पूर्ण स्त्रियों को अपनी शोभा से पराजित करके उल्लसित हो रही हैं। [1]

इधर-उधर चलने में ये अपने पद विन्यास के द्वारा मत्त गयन्द की गति को लज्जित करती हैं। इनके अधर रंग शून्य हैं और कपोल पीक के रंग से रंजित हैं जिनकी अनूठी छबि के द्वारा वे अपने प्रियतम के चित्त में कामदेव के समूह को सजा रही हैं। (उनके मन में काम के मनोरथों को उत्पन्न कर रही हैं।) [2]

उनके वक्षस्थल पर काली लटें लटक रही हैं, एवं कटि में किंकिणी बज रही है। सखी भावापन्न श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि उन्होंने इस समय अपने नीलपट के बदले में प्रियतम का पीतपट ओढ़ रखा है। किन्तु इन युवती को सब युक्तियाँ शोभा देती हैं। (इनकी हर प्रकार से शोभा बढ़ती है।) [3]


Hit Sfut Vani Shlok 16 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (16)

चलौ वृषभानु गोप के द्वार।

जनम लियौ मोहन हित श्यामा, आनंद-निधि सुकुमार॥ [1]

गावत जुवति मुदित मिलि मंगल, उच्च मधुर धुनि-धार। [2]

बिबिध कुसुम कोमल किसलय दल, सोभित बंदनवार॥ [3]

बिदित वेद-विधि विहित विप्रवर, करि स्वस्तिनु उच्चार। [4]

मृदुल मृदंग, मुरज, भेरी, डफ, दिवि दुंदुभि रवकार॥ [5]

मागध सूत बंदी चारण जस, कहत पुकार-पुकार। [6]

हाटक, हीर, चीर, पाटंबर, देत संभार-संभार॥ [7]

चंदन सकल धेनु-तन मंडित चले जु ग्वाल सिंगार। [8]

(जैश्री) हित हरिवंश दुग्ध-दधि छिरकत, मध्य हरिद्रा गार॥ [9]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (16)

वृषभानु गोप के द्वार पर चलो जहाँ सुकुमार आनन्द निधि स्वरूपा श्रीश्यामा ने मोहन के हित के लिए जन्म लिया है [1]

जहाँ मुदित ब्रज युवतियाँ मिलकर उच्च और मधुर ध्वनि में धारा प्रवाह मंगल गान कर रही हैं। [2]

जहाँ नाना प्रकार के पुष्प एवं कोमल नवीन पत्तों से बनी हुई बन्दनवार शोभित हो रही हैं। [3]

जहाँ श्रेष्ठ ब्राह्मण गण वेद विधि से अनुमोदित आशीर्वादात्मक मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं। [4]

जहाँ मृदंग, मुरज, भेरी और डफ मृदुल रीति से बज रहे हैं और जहाँ आकाश में दुंदुभी का शब्द हो रहा है। [5]

जहाँ मागध, सूत, बन्दी और चारण ऊच्च स्वर से यश-वर्णन कर रहे हैं। [6]

जहाँ वृषभानु राय सबको सँभाल-सँभाल कर मुहरें, हीरे और रेशमी वस्त्र प्रदान कर रहे हैं। [7]

जहाँ गोपगण सब गायों के शरीर में चन्दन चर्चित करके चले आ रहे हैं। [8]

जहाँ श्रीहित हरिवंशचन्द्र दूध-दही में हल्दी डालकर सब लोगों के ऊपर छिड़क रहे हैं। [9]


Hit Sfut Vani Shlok 17 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (17)

(राग गौरी)
तेरौई ध्यान राधिका प्यारी गोवर्द्धनधर लालहिं।
कनक लता सी क्यों न बिराजत, अरुझी श्याम तमालहिं॥ [1]
गौरी गान सुतान ताल गहि, रिझवति क्यौं न गुपालहिं।
यह जोवन कंचन-तन ग्वालिन, सफल होत इहिं कालहि॥ [2]
मेरे कहैं विलंब न करि सखि, भूरि भाग अति भालहिं।
(जैश्री) हित हरिवंश उचित हौं चाहति, श्याम कंठकी मालहिं॥ [3]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (17)



यह मान का पद है । श्री हित सजनी श्री राधिका को सम्बोधित करते हुए कहती हैं:

हे राधिका प्यारी, गोवर्धनलाल को सदा तुम्हारा ही ध्यान रहता है।
(श्रीश्यामसुन्दर को यहाँ गोवर्धनधर लाल कहकर यह व्यंजित किया गया है कि यद्यपि वे संसार के रक्षण एवं पालन में प्रवृत्त रहते हैं तथापि उनका मन अनन्य भाव से तुम में ही आसक्त रहता है।) इन श्याम तमाल के साथ तुम स्वर्णलता के समान उलझकर वयों नहीं सुशोभित होती ? [1]

तुम तान और ताल के साथ गौरी राग गाकर मदनगोपाल को क्यों नहीं रिझाती ? हे भोली प्रिया, श्री श्यामसुन्दर के साथ मिलने से तुम्हारा यह यौवन और यह कंचन जैसा तन इसी समय सफल हो सकता है। [2]

हे सखी, तुम मेरे कहने से विलम्ब न करो। तुम्हारा उच्च ललाट विपुल भाग्य से युक्त है। सखी भावापन्न श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि तुम श्यामसुन्दर के कंठ की माला बनो, यह मेरा चाहना अत्यन्त उचित है।
(क्योंकि इस प्रकार ही तुम्हारे प्रेम और रूप-सौंदर्य की श्रीवृद्धि होती है।)। [3]


Hit Sfut Vani Shlok 18 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (18)

आरती मदन – गोपाल की कीजियै।
देव रिषि व्यास शुक दास सब कहत निज,
क्यौं न बिनु कष्ट रस सिंधु कौं पीजियै। [1]
अगर करि धूप कुंकुम मलय रंजित,
नव वर्तिका घृत सौं पूरि राखौ। [2]
कुसुम कृत माल नँदलाल के भाल पर,
तिलक करि प्रगट यस क्यौं न भाखौ। [3]
भोग प्रभु योग भरि थार धरि कृष्ण पै,
मुदित भुज दंड वर चँवर ढारौ। [4]
आचमन पान हित मिलित कर्पूर जल,
सुभग मुख वास, कुल ताप जारौ। [5]
शंख दुंदुभि पणव घंट कल वेणु रव,
झल्लरी सहित सुर सप्त नाचौ। [6]
मनुज तन पाइ यह दाय ब्रजराज भज,
सुखद हरिवंश प्रभु क्यौं न याँचौ। [7]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (18)



मदनगोपाल की आरती करनी चाहिये। देवऋषि नारद, वेदव्यास एवं शुकदेवजी जब विश्वास पूर्वक इस बात को कहते हैं तब (मदनगोपाल की आरती करके) बिना श्रम के रससिन्धु का पान क्यों नहीं करते ? [1]

आरती में अगर की धूप और केशर एवं चन्दन से रंजित घृत में सनी हुई नई बत्ती रखनी चाहिये। [2]

नंदलाल को पुष्पमाला धारण कराकर उनके भाल पर तिलक लगाना चाहिये और फिर उनका यशगान करना चाहिये। [3]

इसके पश्चात् प्रभु के योग्य भोग-सामग्री थाल भरकर रखनी चाहिये और हर्षित होकर भुजदण्ड से उन पर चँबर ढारना चाहिये। [4]

फिर कपूर मिश्रित जल रो प्रभु को आचमन पान कराना चाहिये और सुन्दर मुखवास (मुख शुद्धि के लिये सुगन्धित द्रव्य) अर्पित करके अपने संस्कार जनित तापों को नष्ट करना चाहिये । [5]

आरती के समय, शंख, दुंदुभी, पणव, घंट, वेणु, झल्लरी आदि के द्वारा सप्त स्वरों को ताल पूर्वक (बजाना) चाहिये। [6]

श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि मनुष्य शरीर की प्राप्ति जैसा अनुपम दाव लगने पर ब्रजराज का भजन करके सुखदाता प्रभु से अविचल सुख की याचना क्यों नहीं करते ? [7]


Hit Sfut Vani Shlok 19 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (19)

आरति कीजै श्याम – सुन्दर की।
नंद के नंदन राधिका – वर की।। [1]
भक्ति करि दीप प्रेम कर बाती।
साधु संगति करि अनुदिन राती।। [2]
आरती ब्रज जुवति जूथ मन भावै।
श्याम लीला (श्री) ‘हरिवंश हित’ गावै।। [3]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (19)



भूमिकाः- यह आरती का पद है । श्रीहिताचार्य ने इस प्रकार की आरती के अवसर पर श्रीश्यामाश्याम की लीला का गान करने का विधान किया है जो साधु संग से प्रज्वलित की गई प्रेमाभक्तिमयी आरती के साथ स्वाभाविक ही है।
व्याख्याः – नन्दनन्दन राधिका वर की आरती करनी चाहिये। [1]
भक्ति के दीपक में प्रेम की बत्ती डालकर उसको प्रतिदिन साधु संग के द्वारा प्रकाशित करना चाहिये। [2]
यह आरती युवति यूथ (सखी समूह) के मन को रुचिकर होती है और श्रीहित हरिवंश इस अवसर पर श्रीश्यामाश्याम की लीला का गान करते हैं। [3]


Hit Sfut Vani Shlok 20 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (20)

रहौ कोऊ काहू मनहि दिये।
मेरे प्राणनाथ श्री श्यामा सपथ करौं तृण छिये ।।
जे अवतार कदंब भजत हैं धरि दृढ़ ब्रत जु हिये।
तेऊ उमगि तजत मर्जादा वन बिहार रस पिये।।
खोये रतन फिरत जे घर-घर कौन काज जिए ।
(जैश्री) हित हरिवंश अनत सचु नाहीं बिनु या रजहिं लिये।।

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (20)



प्रस्तुत पद में श्री हित हरिवंश महाप्रभु ने श्री राधारानी के प्रति निष्ठा को शपथ खा कर व्यक्त किया है एवं श्री वृन्दावन धाम की उनकी एकमात्र निष्ठा को भी व्यक्त किया है।

कोई किसी में भी मन लगाए रहे मैं तो तृण स्पर्श करके शपथ पूर्वक कहता हूँ कि मेरे प्राणनाथ केवल एक श्रीश्यामा ही है।

जो लोग दृढ़ व्रत धारण करके अवतारों के समूह को भजते हैं वे भी वृन्दावन के प्रेम विहार रस का पान करते ही उमँग कर अपनी मर्यादा को त्याग देते हैं। 

जो रत्न को खोकर घर-घर भीख माँगते फिरते हैं उनके जीने से लाभ ही क्या है ? श्री हित हरिवंश महाप्रभु कहते हैं कि वृन्दावन की रज प्राप्ति किये बिना अन्यत्र हर जगह अशांति ही मिलेगी।


Hit Sfut Vani Shlok 21 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (21)

हरि रसना राधा-राधा रट।
अति अधीन आतुर जद्यपि पिय, कहियत है नागर नट॥
संभ्रम द्रुम, परिरंभन कुंजन, ढूँढ़त कालिन्दी-तट।
विलपत, हँसत, विषीदत, स्वेदित सतु सींचत अँसुवनि वंशीवट॥
अंगराग परिधान वसन लागत ताते जु पीतपट।
(जैश्री) ‘हित हरिवंश’ प्रसंशित श्यामा, दै प्यारी कंचन-घट॥

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (21)



भूमिका- इस पद में श्री श्यामसुंदर के उत्कट विरह का वर्णन है। सूरदास जी, नन्ददास जी आदि रसिक महानुभावों ने सर्वत्र श्री राम एवं गोपी जनों के विरह के वर्णन उपस्थित किये हैं इसके विपरीत श्रीहिताचार्य ने अपनी ब्रजभाषा रचनाओं में कहीं भी श्रीराधा के विरह का वर्णन न करके श्रीश्यामसुन्दर के विरह-ताप का ही वर्णन किया है।

व्याख्या:- श्रीहरि की रसना राधा-राधा रट रही है। वे यद्यपि नागर और नट कहलाते हैं फिर भी और प्रिया से मिलने के लिये सदैव अधीर और आतुर बने रहते हैं। (नागर नट से तात्पर्य उस चतुर नायक से है जो अनेक नायिकाओं से प्रीति करके भी कहीं बँधता नहीं है।)

(अब श्रीराधा के विरह में उनकी करुण स्थिति का वर्णन करते कहते हैं) वे श्रीवृन्दावन के वृक्षों को देखकर भ्रम में पड़ जाते हैं, वहाँ फूली हुई कुजों को श्रीप्रिया समझकर उनका आलिंगन करते हैं एव यमुना तट पर श्रीश्यामा को ढूंढते फिरते हैं। वे श्रीराधा के विरह में विलाप करते हँसते हैं, निराशा से दुखी होते हैं, श्रमजल युक्त बनते हैं, (उनको पसीना आता है) एवं अपने आँसुओं से बंसीवट को सींचते हैं ।

(जो श्यामसुंदर वंशी नाद के द्वारा वंशीवट का सिंचन करते हैं वे ही आज श्रीराधा के विरह में, उसको हरा-भरा रखने के लिये, उसे अपने आँसुओं से सींच रहे हैं।)

अंग राग और पहनने के वस्त्र (पीतपट आदि) श्री राधा के विरह में नन्दलाल को अग्नि के समान गरम जान पड़ते हैं। श्री हित हरिवंश श्रीश्यामा के (उदारता आदि गुणों की) प्रशंसा करते हुये प्रार्थना करते हैं कि हे प्यारी, अपने प्रियतम के विरह ताप की शान्ति के लिये कंचन घट (रस पूर्ण युगल उरोज) प्रदान कीजिये।

(यहाँ उरोंजों के लिये ‘कंचन घट’ का प्रयोग साभिप्राय है क्योंकि
ताप की शांति जल पूर्ण घट से ही उठाया है।)।


Hit Sfut Vani Shlok 22 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (22)

(राग कल्याण)
लाल की रूप माधुरी नैननि निरखि नेकु सखी ।
मनसिज मन हरन – हास, साँवरौ सुकुमार रासि,
नखसिख अङ्ग – अंगनि उमँगि सौभग सींव नखी ॥ [1]
रँगमगी सिर सुरँग पाग लटकि रही वाम भाग,
चंपकली कुटिल अलक बीच – बिच रखी ।
आयत दृग अरुण लोल कुंडल मंडित कपोल,
अधर दसन दीपति की छवि क्यौं हूँ न जात लखी ॥ [2]
अभयद भुज दंड मूल पीन अंस सानुकूल,
कनक निकष लसि दुकूल दामिनी धरखी ।
उर पर मंदार हार मुक्ता लर वर सुढार,
मत्त दुरद गति तियनि की देह दसा करखी ॥ [3]
मुकुलित वय नव किसोर, वचन रचन चित के चोर,
मधु रितु पिक साव नूत मंजरी चखी ॥ [4]
(जैश्री) नटवत ‘हरिवंश’ गान, रागिनी कल्यान तान,
सप्त स्वरन कल, इते पर मुरलिका बरखी ॥ [5]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (22)



हे सखी, तू अपने नेत्रों से लाल की रूप माधुरी को तनिक देख तो सही । सुकुमारता की राशि श्रीश्यामसुन्दर की मुसकान कामदेव के मन को हरण करने वाली है । उनके नख से शिखा पर्यन्त विभिन्न अंग इतने अधिक सुन्दर हैं मानो उन्होंने उमँगकर सुन्दरता की सीमा का उल्लंघन कर दिया है । [1]

उनके सिर पर सुन्दर लाल पाग बँधी है जो बाँई ओर ( श्रीराधा की ओर) झुकी हुई है और उनकी घुँघराली अलकों के बीच-बीच में चम्पा की कली शोभायमान हैं । उनके बड़े-बड़े नेत्र अरुण और चंचल हैं, उनके कपोल कुंडल से मंडित हैं और उनके अधर एवं दशनों की कांति छटा पर किसी प्रकार भी नेत्र जम नहीं पाते । [2]

उनकी भुजायें अभय प्रदान करने वाली हैं और वैसे ही पुष्ट कंधे हैं । उनके श्याम शरीर पर पीताम्बर इस प्रकार सुशोभित है जैसे कसौटी पर स्वर्ण रेखा खिंच रही हो और उसको (पीताम्बर को ) देखकर दामिनी दब गई है । [3]

उनके वक्षस्थल पर मंदार (स्वर्गीय पुष्प) का हार सुशोभित है और उसके साथ सुडौल मोतियों की माला धारण हो रही है । उनकी मत्त गजराज जैसी चाल देखकर स्त्रियों ने देह दशा विसार दी है । [4]

उनकी खिली हुई नवकिशोर अवस्था है, उनकी वाणी चित्त को चुराने वाली है (जिसको सुनकर ऐसा मालुम होता है) मानो वसन्त ऋतु में आम की मंजरी को चाखकर कोयल का बच्चा बोल रहा हो । [5]

श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि सुन्दर सप्त स्वरों का आश्रय लेकर वे तानें लेते हुए भाव प्रदर्शन पूर्वक कल्याण रागिनी का गान कर रहे हैं । इतना सब कुछ करते हुए वे वंशी के द्वारा (अमृतमय) स्वरों की वर्षा भी कर रहे हैं । [6]


Hit Sfut Vani Shlok 23 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (23)

(राग मलहार)
दोऊ जन भीजत अटके बातन ।
नव निकुंज के द्वारे ठाड़े अम्बर लपटे गातन ॥ [1]
ललिता ललित रूप रस भींजी बूँद बचावत पातन ।
(श्री) ‘हित हरिवंश’ परस्पर प्रीतम मिलवति रति रस घातन ॥ [2]

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, स्फुट वाणी (23)

भूमिका :-
वर्षा विहार का वर्णन करने वाले इस पद में श्रीहिताचार्य ने श्रीश्यामा श्याम की परस्पर निरतिशय आसक्ति का प्रदर्शन बड़े सुंदर ढंग से किया है। साथ ही इन दोनों के प्रति सखियों का अनुपम अनुराग एवं चातुर्य भी इसमें भली भाँति प्रदर्शित हुआ है।

व्याख्या :- 
दोनों श्रीश्यामाश्याम भीगते हुये बातों में अटक रहे हैं । 
वे सघन कुंज के द्वार पर खड़े हैं और उनके श्रीअंगों से भीगे हुए वस्त्र लिपट रहे हैं । [1] 

दोनों के रूप-रस में भीगी हुई ललिता जी उनके ऊपर पत्तों की छाया करके उनको वर्षा की बूंदों से बचा रही हैं। 
 श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि एक दूसरे के प्रियतम श्रीश्यामाश्याम परस्पर श्रृंगार केली के दाव पेच लगा रहे हैं ।  [2]


Hit Sfut Vani Shlok 24 | श्री हित स्फुट वाणी श्लोक (24)

“सबसौं हित निहकाम, मन वृन्दावन विश्राम |
राधावल्लभलाल कौ, हृदय ध्यान, मुख नाम ||

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (24.1)

तनहिं राखि सत्संग में मनहिं प्रेमरस भेव।
सुख चाहत हरिवंश हित, कृष्ण कल्पतरू सेव।।

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (24.2)

निकसि कुंज ठाडे भये, भुजा परस्पर अंस।
श्रीराधावल्लभ मुख कमल, निरखि नैन हरिवंश।।

– श्री हित हरिवंश महाप्रभु, श्री हित स्फुट वाणी (24.3)

“रसना कटौ जो अन रटौ, निरखि अन फुटौ नैन,

श्रवण फुटौ जो अन सुनो, बिनु राधा जसु बैन |”(24.4)

श्री हित हरिवंश जी कहते हैं कि आत्मा का सच्चा लाभ यह है कि, “आत्मा के साथ निस्वार्थ सेवा करते हुए हमेशा बृज वृंदावन में रहो, श्री राधावल्लभ लाल की छवि मन में रखो और हमेशा उनका नाम अपने मुख में रखो ।”(1)

अपने तन को सत्संग में रखो और मन को प्रेम रस में डुबाओ, यदि वास्तविक सुख चाहते हो तो श्री कृष्ण रूपी कल्पतरु का सेवन करो।(2)

श्री हित हरिवंश महाप्रभु बताते हैं कि श्री राधा कृष्ण कुंज में से निकलकर कर खड़े हुए हैं एवं परस्पर अंसों पर भुजा रखे हुए हैं, श्री राधा वल्लभ लाल का मुख कमल वह अपने नेत्रों से निहार रहे हैं।(यह श्री राधा कृष्ण के रूप ध्यान का पद है कि उनका दर्शन किस प्रकार करना चाहिये)(3)

श्री हित हरिवंश महाप्रभु जो कि श्री राधारानी के अनन्य उपासक हैं, उनकी अनन्यता किशोरीजी के प्रति उनके इस पद में वर्णित है। श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी के शब्दों में: “मेरी जिह्वा कट जाए यदि में श्री राधा रानी के  अतिरिक्त कुछ और रटन करूँ, मेरे नयन फ़ूट जाएँ यदि मैं राधारानी के रूप के अतिरिक्त भी देखूं, मेरे श्रवण भी फ़ूट जाएं यदि राधा रानी के यश के अतिरिक्त कोई भी बात मेरे श्रवण में पड़े।  हित हरिवंश महाप्रभु मुरली के अवतार थे और यह भी माना जाता है की मुरली राधा नाम की अनन्य है।(4)



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